शनिवार, 17 अक्तूबर 2015

मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों

मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 


बहारों का आनन्द लेती हूँ
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
कि हवा के संग-संग बह जाऊँ ,

लोग सूखे पत्रों के मानिन्द
बहक,हवा के साथ उड़ते हैं
जिधर का रूख़ हवा का हो
उधर ही हवा के साथ चलते हैं

माहौल के अनुरूप देखा है
कि हैं कुछ लोग ढल जाते
जैसी जिस जगह की मांग
वैसी तुरुप की चाल चल जाते ,

कड़वा सत्य बुरा होता मगर 
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
सच से बहस में मैं मुकर जाऊँ ,

भला एक ही इन्सान कैसे
जब-तब कुछ नज़र आता
जुबां होती तो है एक मगर
तरह-तरह की बात कर जाता ,

लिबास आचरण के उनके
आश्चर्य,पल-पल बदलते हैं
लोग भलीभांति जानते फिर 
क्यूँ कसीदे तारीफ़ों के गढ़ते हैं

मैं अडिग सही बात पे होती
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
गिरगिटों का चोला पहन आऊँ ,

कहें भले लोग बुरा मुझको
इसकी परवाह नहीं करती
ईश्वर क्या देखता ना होगा
चालबाज़ी चाल में है किसकी ,

चटुकारता की दुर्गन्धों से
भभक उठते हैं नथुने मेरे
उबटन लगाकर तेल संग
क्यों उंगलियां मालिश करें मेरे ,

सच-झूठ का बाँधूँ कलावा 
मेरी ये फ़ितरत नहीं दोस्तों 
आत्मा का क़त्ल कर जीत जाऊँ ।

                       शैल सिंह















गुरुवार, 15 अक्तूबर 2015

ओ परदेशी

          ओ परदेशी 


   क्या बतलायें शहर की कोई भी चीज
   अपने प्यारे न्यारे गाँव सी नहीं लगती
   चाहे जितना खायें पिज्जा,बर्गर,नूडल
   माँ के व्यंजन के स्वाद सी नहीं लगतीं ,

कच्ची गलियाँ अम्मा-बापू रखना याद घराना
कैसे फड़फड़ायें देख परिंदे वीरां आशियाना ,

शहर को कूच करने वाले गाँव के मुशाफ़िर
गाँवों की पगडण्डियां हृदय में बसाये रखना
हिफाज़त से बुजुर्गों के नसीहत की पूँजी भी
शिद्दत से सहेज कर आँखों में सजाये रखना ,

निशानियाँ मत करना जाते वक़्त की विस्मृत 
उमड़ा रेला परिजनों का आँसू भरा ख़जाना 
कहीं भूल ना जाना परदेश की आबोहवा में
आँगने का छायादार नीम का दरख़्त पुराना ,

कभी ग़र याद में तड़पे दिल लड़कपन वाला
वनवास छोड़ दहलीज़ अपने लौट आ जाना 
रौशन हो जाएँगी फिर बेनूर हुयी बूढ़ी आँखें 
रौनक पनघट पर भी जो बिन तेरे सूना-सूना ।

                                          शैल सिंह





आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी मेरी

आदतों में करना शुमार अकड़ मजबूरी हुई 



मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई
ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,

मोम सा दिल बनाने की पाई मैं ऐसी सजा
ठौरे-ठौर मोमबत्ती के मानिन्द जलाई गई
मेरी सादगी ही बस आई ज़माने को नज़र
मेरी हर बात हँसकर हवा में यूँ उड़ाई गई ,

मेरे आदर्शों उसूलों और सत्य की राहों को
पग-पग पर भुगतना पड़ा ख़ामियाजा सदा
भला साँच को आंच की कब परवाह हुई है
झूठ की बुनियाद नहीं करना ईमारत खड़ा ,

पढ़ सकूँ चेहरों के पीछे की दोगली इबारतें
हुनर सीखते-सीखते गुज़र गया इक जमाना
झूठ फ़रेब का मोटा मुलम्मा चढ़ा अक़्स पर 
लब पर आती हँसी नहीं काईयाँ सी दिखाना ,

आदतों में शुमार करना अकड़ मजबूरी हुई 
वरना इज्ज़त से जीने के हक़ सभी छीनकर
दुनिया कभी सिद्धान्तों पे तो चलने देगी नहीं
करवाएगी मनमानी,बेईमानी भी मजबूर कर ,

मुझे क्या नाम,शोहरत,ओहदा कमाये कोई 
ज़मीर बेचकर हमने कभी समझौता ना की ,

                                         शैल सिंह



बुधवार, 14 अक्तूबर 2015

ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है


''  ना  जाने क्यों मन आज उद्द्वेलित है ''

जज़्ब कर नीर नैन का लाल दर्द सीने में ज़ब्त किया था
कदमों में बिछा दुनिया की नेमतें सीने से जुदा किया था ,

क्यूँ मन की मौन तलहटी में ऐसी हलचल हो रही आज
लगता कोई पीड़ा मथ रही लाल को जो छुपा रहा राज ,

भींचकर गम सीने में गुमसुम मत कभी रहना चुपचाप
तेरे बेचैन साँसों के स्वर की भी माँ सुन लेती है पदचाप ,

तेरे अवयव की हर धड़कन मुझसे ही हो के गुजरती है
गर बदली तुझ पर घिरती है तो वारिश मुझ पर होती है ,

माँ के व्यंजन की खुश्बू तेरे नथुनों तक भी जाती होगी
माँ देख सामने थाली दृग से,छह-छह धार बहाती होगी ,

तूं जबसे दूर गया नयन से,मन अंदेशों में घिरा रहता है
ऐ जान-ज़िगर के टुकड़े मेरे प्राण तुझी में बसा रहता है ,

एक-एक निवाला हलक में मैं मुश्किल से उतार रही हूँ
इक-इक दिन काट इंतजार में बाट बेसब्र निहार रही हूँ ,

जाकर परदेश में बबुवा मत परदेशी फिरंगी बन जाना
माँ ताक रही रस्ता शिद्दत से जल्दी घर अपने आ आना ।

                                                              शैल सिंह 

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...