शुक्रवार, 18 सितंबर 2015


'' हिंदी की महत्ता '' 

                                       
जय हिंदी ,जय भारत ,

      हिंदी पर लेख लिखने में अपार हर्ष और आनंद की अनुभूति हो रही है । हिंदी का सम्यक ज्ञान यदि मैं अपने लेख द्वारा थोड़ा भी जन मानस को दे सकूँ तो यह मेरे प्रयास की थोड़ी सी उपलब्धि होगी और अपनी लेखनी की कुशल शैली पर संतोष  और प्रसन्नता की अनुभूति भी होगी ।
            बताते चलें कि विश्व में ८० करोड़ लोग हैं जो हिंदी को अच्छी तरह समझते हैं ,और ६० करोड़ विश्व में हिंदी बोलने वाले लोग हैं ।१४ सितम्बर १९४९ को वैधानिक रूप से हिंदी को राजभाषा का दर्ज दिया गया । संबिधान में अनुच्छेद ३४३ में यह प्रावधान किया गया है कि देवनागरी के साथ हिंदी भारत की राजभाषा होगी । हिंदी के माध्यम से आज रोजगार तथा कारोबार व्यवसाय के बड़े बाजार भी तमाम सम्भावनाओं के लिए दस्तक दे रहे हैं । यह भी शुभ लक्षण है कि आज हिंदी को लेकर प्रचलित हीनता की ग्रन्थि से धीरे-धीरे हम उबर रहे हैं ,भाषा की मजबूती ही चहुँमुखी विकास का मूलमंत्र है ।हिंदी अब प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर विश्वव्यापी बन रही है । अपने मुनाफे के लिए विश्वस्तरीय कम्पनियाँ भी हिंदी प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं ,जैसे माइक्रोसॉफ्ट ,गूगल ,याहू ,आईबीएम तथा ओरेकल इत्यादि ।
        हिंदी केवल भाषा ही नहीं वरन भारतीयों की आत्मा है, भाषा ही अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, और वह भाषा है हिंदी, जो दिलों पर अपनी गहरी छाप छोड़ती है । हमारे प्रधानमंत्री जी भी हर जगह हिंदी में ही भाषण देते हैं चाहे देश हो या विदेश ,और हर जगह इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है । पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी ने भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में ही भाषण दिया था ,जिसे आज भी लोग याद करते हैं ।अंग्रेजी बोलने वाले दुराग्रह के कारण हिंदी नहीं बोलते जबकि उन्हें अच्छी तरह हिंदी बोलने और समझने आती है , ये लोग `हिंदी फिल्में तो बड़े चाव से देखते हैं ,फिर हिंदी अपनाने में दुर्भाव क्यों । हमें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व करना चाहिये ,सच्चे हिंदुस्तानी होने का स्वाभिमान होना चाहिए । 
        हिन्दी इस राष्ट्र की पुरातन संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है । हिंदी भारतीय समाज को जोड़ने की एक कड़ी है ,हिंदी देश की प्राचीन सभ्यता और आधुनिक प्रगति के बीच की एक मजबूत जंजीर है। हिंदी भारतीय चिंतन और संस्कृति की वाहक है ,यह भाषा हमारे पारम्परिक ज्ञान की खान है ,दुनिया के कोने-कोने में बसे लाखों करोड़ों प्रवासियों की हिंदी ही सम्पर्क भाषा है,हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान मिली है । हिंदी की समृद्धि से देश की समृद्धी है । इस राष्ट्र ने जब-जब किसी विपत्ति में स्वयं को घिरा हुआ पाया ,हिंदी भाषा ने चारों दिशाओं में स्थित विविध संस्कृति से युक्त राज्यों को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्र को संगठित किया एवं विपत्ति से राष्ट्र को बाहर निकाला । चाहे अंग्रेजों के विरुद्ध ४०० वर्षों तक चला स्वतंत्रता संग्राम हो या उसके पूर्व मुगलों और यवनों के अत्याचारों से आक्रांत १००० वर्षों का अविरल संघर्ष हो ,राष्ट्र भाषा हिंदी ने हर युग और काल में एक मंच प्रदान करने का अविस्मरणीय कार्य किया है ।किन्तु विगत वर्षों में इस भाषा को पल्ल्वित पुष्पित करने के मार्ग में जिस तरह की बाधाएं आई हैं ,या कह सकते हैं बाधाएं उत्पन्न की गई हैं,वह एक विचित्र स्थिति है अब तक विदेशियों ने हिंदी को पनपने से रोका ,राष्ट्रकवियों को राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कवितायेँ करने से रोका ,तुलसी और मीरा के भक्तिपदों तक पर तरह-तरह के अंकुश लगाये गए ,वह इस बात का द्योतक था कि भारतीय संस्कृति की प्राचीन उन्नत परंपरा को नष्ट करने के उद्देश्य से विदेशियों ने ऐसा किया ,क्योंकि यही एक मार्ग था जिसके द्वारा वे इस राष्ट्र की एकता ,अखंडता को खंडित कर सकते थे । किन्तु यही कार्य जब स्वयं भारतीय करें ,और वह भी स्वातन्त्रयेत्तर भारत में ,तो इसका कारण कुछ अस्पष्ट सा प्रतीत होता है । अंग्रेजी भाषा सार्वभौमिक रूप से सर्वमान्य एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है एवं उसका अपना एक कार्यक्षेत्र है,क्षेत्रीय भाषाओँ की भी अपनी एक महत्ता है । किन्तु एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के अतिरिक्त हमारे पास विकल्प क्या है ? भारत के हर कोने में बोली समझी जाने वाली यह एक व्यापक साहित्य से युक्त मीठी और सहज भाषा है ,यह अलग बात है कि अपने स्वार्थ की अंधी परिभाषाओं में स्वयं को बद्ध कर कुछ लोग अलगाववादी मानसिकता के कारण हिंदी का विरोध आदिकाल से करते आये हैं ,किन्तु ऐसा करने वाले स्वयं जानते हैं कि यदि हिंदी का विरोध है तो उनके देश से दूसरे प्रदेश जाकर काम करने वाले लोगों का जीवन यापन असंभव हो जायेगा । अर्थात भाषा की व्यापकता का लाभ तो वे लेना चाहते हैं ,किन्तु इसका प्रतिफल देने की बजाय वे हिंदी के विरोध में ही स्वर मुखर करते हैं ।
     यह प्रश्न मात्र हिंदी दिवस तक ही सीमित नहीं है बल्कि एक शाश्वत सोच का विषय है कि हमें अपनी ही मातृभाषा से दोयम दर्जे के व्यव्हार की क्या आवश्यकता है ? विश्व की हर भाषा का ज्ञान हो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है ,किन्तु अपनी ही मातृभाषा की सतत उपेक्षा कर हम संस्कृत को कहाँ ले जा रहे हैं, मंथन का विषय है । अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा में हमारी निष्ठा हो किन्तु वह हिंदी के प्रति उपेक्षा की कीमत पर कत्तई स्वीकार्य नहीं है। यह समय है जब हमें समझना होगा कि हमारा राष्ट्रध्वज मात्र कपड़े का टुकड़ा नहीं,वरन सम्पूर्ण राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है । हमारा राष्ट्रगान मात्र कुछ शब्दों का समंजन नहीं ,अपितु प्रत्येक भारतवासी के हृदय की गूंज है । इसकी महत्ता हमारे स्वयं के अस्तित्व से कदापि कम नहीं । अंग्रेजों ने इस महत्ता को समझा था इसीलिए सबसे पहले उन्होंने अपने पैर ज़माने के लिए भारतीय संस्कृति,स्थानीय बोलियों और राष्ट्रभाषा पर प्रहार किया और लोगों को अलगाववादी मानसिकता की धारा में बहाने का प्रयास किया । किन्तु अब स्थितियां विपरीत हो चुकी हैं । अब अपने ही राष्ट्र के मूर्धन्य उत्तरदायी लोग हिंदी की अस्मिता को सुरक्षित रखने के प्रति उदासीन हैं । अगर भारत की भाषाओँ को विधायिका ,कार्यपालिका व न्यायपालिका और साथ में शिक्षा व्यवस्था  खासकर उच्च शिक्षा व शोध ,वाणिज्य-कारोबार ,सूचना प्रौद्योकि आदि में स्थान नहीं दिया जायेगा तो हम कैसे उम्मीद करें कि दुनिया हमारी भाषा को सम्मान देगी । अपनी मूल संस्कृति का सर्वनाश करके किसी भी विकास की कल्पना करना मृगमरीचिका के सामान है । अतः यह प्रयास मात्र हिंदी दिवस तक सीमित न हो कर हर पल अनवरत चले ,तभी हिंदी दिवस की सार्थकता है । हिंदी दिवस हिंदी के लिए कुछ करने हेतु प्रारम्भ करने का दिन नहीं है ,वरन वर्ष भर हिन्दी के उन्नयन के लिए किये गए प्रयासों की समीक्षा का दिन है ।आइये हम भी अपने वर्ष भर के प्रयासों की समीक्षा करें एवं यदि हमारा प्रयास शून्य रहा है तो आज ही आत्मविश्लेषण करें कि अपनी संस्कृति व भाषा के महत्त्व को न समझकर हमने क्या खोया है ?
      ' हिंदी ' साहित्यकारों के मन की ,कलम की वह पूंजी है जिसके द्वारा वह जन-जन के मन की ,समाज की ,परिवेश की भावनाओं को दर्शाता है । यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आज के दौर में हिंदी साहित्य के शौक का भी पुनर्जन्म हुआ है । दुनिया में दिनोंदिन हिंदी का रुतबा बढ़ रहा है, आज तकनीकी प्रगति की संचार प्रकाशन संवाद की अनेकानेक खिड़कियाँ खोल रही है । वैश्विक मंच पर भारत की बढ़ती शाख ने कई देशों को हिंदी जानने व समझने को विवश कर दिया है ।
      हिंदी भाषा का प्रश्न मात्र एक भाषा के उत्थान-पतन का प्रश्न नहीं है ,हिंदी देश की पहचान ,उसके गौरव ,कला और सांस्कृतिक धरोहर से भी जुडी है । हिंदी का अर्थ है देश की अपनी भाषा में देश का आह्वान करना ,भारतीयों के लिए हिंदी से जुड़ना देश से जुड़ना है । यदि हिंदी जीवित है तो अपनी जीवन शक्ति से ,क्योंकि राजभाषा,मातृभाषा ,संपर्क भाषा की यह संजीवनी है । हिंदी में आगे उज्जवल भविष्य की संभावनाओं का आसार नजर आने लगा है ।वह समय जल्द ही आने वाला है जब हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा की मान्यता मिलेगी और हिंदी का मान-सम्मान विश्व फलक पर पताका की तरह लहराएगा ।
     बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी को हिंदी दिवस के रूप में मनाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं । हिंदी दिवस मना लेना ,हिंदी पखवाड़ा मना लेना मात्र ही हिंदी के प्रति आस्था नहीं दर्शाता ,बल्कि अपनी राष्ट्र भाषा के लिए हमें प्रतिबद्ध होना चाहिए । राष्ट्रीय व्यव्हार में हिंदी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए बेहद आवश्यक है । हिंदी भाषा एक ऐसी भाव तरंगिणी है जो सीधे आत्मा में उतरती है ,हिंदी विचारों की सुन्दर पोशाक है ,जिसके द्वारा हम अपनी अभिव्यक्ति को बहुत ही आकर्षक तरीके से दर्शा सकते हैं ।अब समय आ गया है जब हम नई पीढ़ी के लोगों को यह समझायें कि हिंदी में बात करने में उनमें हीन भावना नहीं आनी चाहिए ,अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए। अपनी भारतीय संस्कृति का दर्शन करायें ताकि ये पीढ़ी अपनी परम्पराओं से अनभिज्ञ ना रह जाय ,भारतीय मूल के लोगों को इस दिशा में गम्भीर प्रयास करना चाहिए ,कहीं ऐसा ना हो कि अंग्रेजियत के फैशन में एक,दो पीढ़ियों बाद ये लोग ये भी भूल जाएँ कि हमारे पूर्वज किस गांव या शहर से आए थे यदि घर में हिंदी को सम्मान नहीं देंगे तो विदेशों में हिंदी का सम्मान कैसे होगा ? यह एक अत्यंत ही गंभीर और विचारणीय विषय है ।   
       आप सबको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं । जय हिन्द। 
                                                                         शैल सिंह 

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...