शुक्रवार, 19 अगस्त 2022

बारिश पर कवि " सावन आकुल है जल आचमन के लिए "

बारिश पर कविता 
सावन आकुल है जल आचमन के लिए


ओढ़ लो ना श्वेत अम्बर घटा की चूनर 
वसुधा प्यासी  है दो बूंद जल  के लिए 
उमड़-घुमड़ मेघ करते तुम आवारगी 
क्यों छलकते  नहीं एक  पल के लिए । 

नभ निहारता है चातक बड़ी आस से 
तृषा से उदासी कोकिल का कण्ठ है 
जलचर तड़फड़ा रहे सूखे ताल,तरनी      
सुस्त नृत्यांगना शिखावल का पंख है ।

कहाँ गड़-गड़ गरज कर चले जाते हो 
छल जाये कड़कती-चमकती दामिनी 
कभी होता ग़र आसार श्याम मेघ का 
मन को हर धार लेते वसन आसमानी ।

आज फिर आई याद बचपन की घड़ी 
वही कागज़ की डोंगी ले आँगन खड़ी 
किस विरह में तुम तल्लीन घन बैरागी  
वेदना तो बताते बरसा नयन की झड़ी ।

धरती सिंगार करने को उतावली बहुत 
आतुर क्यारी में अन्न अंकुरित होने को 
मेघ बिन लगे फीका मल्हार सावन का 
कातर मानुष हैं खिन्न प्रमुदित होने को ।

पगली पूरवा बहे तप्त,देह तवा सी तपे 
तोड़ दो ना बांध अब्र का सभी मेघ जी 
आर्द्र कर दो ना आँचल बरस सृष्टि का 
फिर पूछो प्रेम से आप कुशल क्षेम जी ।

कभी ढाते क्रुद्ध हो जलप्रलय से क़हर 
कहीं करते हो सूखे के प्रकोप से प्रहार 
कहीं दरकाते पृथ्वी कहीं दलदल जमीं 
कभी उड़ाते हो मुँहज़ोर सिकता अपार । 

क्या भूले तुम डगर या हो ज़िद पे अड़े 
निराश ढूंढें पखेरू सूखे वृक्षों पर शरण
व्यथा सहला ना छलका फुहार नेहकी 
कुपित क्यों कोप निर्दोषों पर अकारण 
  
कब नथुनों में घुलेगी मेघ,माटी की गंध 
घेर श्यामल घटा करती सैर किस लिए 
म्लान आनन हैं  प्रेयसी के उद्विग्न नयन 
सावन आकुल है जल आचमन के लिए । 

पनघट पनिहारिनें रीती मटकी ले खड़ीं
कहतीं निठुर व्योम से दृग उठा क्षोभ से 
उष्णता तो मिटा दे अनुराग भर अंजलि 
अनुनय कर रहीं आँचल पसार क्रोध से । 

नख़रे बहुत कर चुके मेह तोड़ो अनशन  
बन महा ठग छल गये जेठ,आषाढ़ तुम 
रखा खाली कलश मन का सावन में भी 
कितने अनुदार अक्खड़  हो पाषाण तुम ।   

शिखावल---मोरनी ,   सिकता---रेत                                 

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित ई

बुधवार, 17 अगस्त 2022

" दूर नैनों से भी हो जुदा,वो दिल से कब हुए"

दूर नैनों से भी हो जुदा,वो दिल से कब हुए


ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसे कि,महक़ जाए ये शहर
या हवा दे आ उन्हें मेरा कुछ हाल या पता 
सिहर जायें सुन के दास्तां वे ऐसा हो असर,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

जा कहो चितचोर से क्या गुजरती दिल पर 
कि क़यामत की रातें हैं कैसा घोलतीं ज़हर
उनके यादों के भंवर में लेती गोता फिर भी
जाने कैसी दरिया मैं  प्यासी रहती हर पहर ,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

दिल आवारा फिरे यादों की पगडंडियों पर  
कट जाता दिन तो होतीं शामें वीरां अक्सर
बुझ जाता दीया पलकों का जल दरीचों पर 
दहलीज़ तन्हाई के रवि भी ढल ढाता क़हर ,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

रूतों ने बदले रुख कई,बदलीं तारीखें नई
मगर शक्लें इन्तज़ार की नहीं बदलीं नज़र
लूटीं कभी खिज़ांयें कभी मौसम बहार का 
पर खिज़ां में भी आस का खड़ा रहा शज़र 

ऐ सिरफिरी हवा ले आ ,उनकी कुछ खबर 
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

ख़ामोश सीने की पनाहों में हैं मौजें सहस्त्र 
सुलगते रेतों पर क्या जानें,वे जलता जिगर 
उनकी ही अता है कि,मेरी ज़िन्दगी आसेब 
क्या हर्फ़ों से समझेंगे वे कैसे कटता सफ़र ,

ऐ सिरफिरी हवा ले आ, उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

हृदय को हजारों ज़ख़म दे,बहारें गईं गुजर
मगर उनके यादों का न नजराना कीं इधर
दूर नैनों से भी हो जुदा,वो दिल से कब हुए
पतझड़ सरीख़ा जीवन फिर भी यादें अमर 

ऐ सिरफिरी हवा ले आ,उनकी कुछ खबर
बिखरा ख़ुश्बू ऐसा कि,महक जाए ये शहर। 

अता--दी हुई  ,आसेब--भटकती      

सर्वाधिकार सुरक्षित
                          शैल सिंह

सोमवार, 15 अगस्त 2022

" मशरूफ़ रहने दो मुझे मेरी तन्हाई में "

 मशरूफ़ रहने दो मुझे मेरी तन्हाई में 

 
नींद पलकों पर आ-आ मचलती रही
ख़ुमारी नैनों में  रक्तिम घुमड़ती रही
स्मृतियां उद्वेलित करतीं रहीं रात भर  
आँखें जलपात्र उलीचती रहीं रात भर ।

निमिष भर के लिए ज्यों  पलकें झपीं
बेदर्द हो गई विभावरी सुबह हो गया
कैद कर ना सके भोर के सपने नयन 
रतजगा से भी कर्कश कलह हो गया ।

होती कर में लेखनी लिख देती व्यथा
मन की लहरों पे मूक भाव तिरते रहे
होती तकरार अभिलाषा, अनुभूति में
यादों के नभ वो परिन्दों सा उड़ते रहे ।

यादों नया दर्द देने का कर के बहाना
छोड़ो तन्हाई के आशियाने पर आना
ग़म को आश्वस्त किया  है बड़े यत्न से
जाओ कहीं और ये शामियाने लगाना ।

अनगिनत क़ाफ़िले मेरे पास यादों के 
मशरूफ़ रहने दो मुझे मेरी तन्हाई में 
बेवक़्त दस्तक़ ना दो दिल के द्वार पर 
न झांको अन्तस की अतल गहराई में ।

मधु यादों की जागीरें उर में सजाकर
मन के पिंजरे पर पहरे बिठा है दिया
लूट लो ना कहीं दौलत तन्हाईयों का
ताक़ीद कर दरबान को बता है दिया ।
 
दिन रणक्षेत्र हुआ है रातें कुरूक्षेत्र सी
यादों तन्हाईयों में जंग प्रबल है छिड़ी
स्मृति ख़यालों में बाँहों में बैठ अंक में
कितने रूपों में लिबास बदल है खड़ी ।

क्या कहूँ सिलसिला यही रोज़मर्रा का 
बोझल पलकों के वृतांत सुनाऊँ किसे
रैन दुहराकर करेगी फिर वही उपद्रव 
ख़यालों में आने से ना रोक पाऊँ जिसे ।  


                        शैल सिंह

बचपन कितना सलोना था

बचपन कितना सलोना था---                                           मीठी-मीठी यादें भूली बिसरी बातें पल स्वर्णिम सुहाना  नटखट भोलापन यारों से क...