तकिया पर कविता
कितना बदनसीब दामन है तकिया तेरा
नि:शब्द करवटों से कभी उकताती नहीं
होती गलगल हो अश्रुओं की हमदर्द बन
दर्द ख़ुदके सिरहाने से कभी बताती नहीं ।
हिलकतीं सिसकियों से बेतरतीब बिस्तर
सिलवटों की एकमात्र तूं चश्मदीद गवाह
इत्मिनान,सुकून,निश्चिन्तता की तूं हितैषी
ईश्क़ के मारों से करती मुहब्बत बेपनाह ।
बसर ढूंढ़ते मन का समंदर हो तुम्हीं जैसे
बन जाती राजदार हमराज़ हो तुम्हीं जैसे ।
भर आग़ोश में तूं करती अद्भुत करिश्मा
दे थपकियां सुलाती सीने से लगा गा लोरियां
परिचारिका सी लवलीन जुती प्रेम रोगियों में
दर्द महसूसती खुदको कभी पुचकारती नहीं ।
शैल सिंह