शनिवार, 27 जून 2015

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों

एक इंसान जो रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है ,असफलताओं ने उसे तोड़कर रख दिया है दुनिया उसे नकारा कहती है ,लोग उसपे तंज कसते हैं,उम्र ढलती जा रही ,जिम्मेदारियां बढ़ती जा रही, सभी कोशिशें नाक़ाम ,उसकी अंतर्व्यथा मैंने अपनी कविता में पिरोया है ,आगे....

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों 

मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता
लाचारियां भी बाज़ार में नहीं मिलतीं
अगर मिलती किस्मत किसी मंडी में
मूल्य अदा कर लाता उम्र नहीं ढलती ,

किसी की बेबसी पे मत हंसा किजिए
मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता
आप भी डरिये जरा वक़्त की मार से
बुरा वक़्त कभी यूं बताकर नहीं आता ,

अक़्ल का चाहे जितना धनी हो कोई
बिना तक़दीर के मन्जिल  नहीं पाया
बीरबल अक्ल का क्षत्रपति होकर भी
कभी बादशाहत का ताज़ नहीं पाया ,

जीने देतीं आशाएं ना तो मरने देतीं हैं
जाने क्यों रूठा है मुझसे मुक़द्दर मेरा
खुद के कंधे पे सर रख रो सकता नहीं
न गले खुद को लगा दिल बहलता मेरा ,

बेहिसाब ढो रहा जिंदगी औरों के लिए
जो मुझे चाहते ज़िंदगी बस उनके लिए
सुबह-शाम वक़्त उनपे जाया हूँ करता 
जीने का नाम जिंदगी है दूसरों के लिए ,

रिश्ते मोहताज नहीं होते हैं पैसों के जी
अमीर बना देते जरूर बिन पैसों के भी
कुछ रिश्ते मुनाफ़ा नहीं देते पर जीवन
अमीर बना देते पोंछ उदासी के सीलन ,

ओ अमीरों गर बनते हो धनवान इतना 
तो बेशक़ीमती मेरी बदनसीबी खरीदो
लौटा दो मेरी बेहतरीन बिखरी अमानत
बेचारगी,लाचारगी भरी दिल्लगी खरीदो ,

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों
बस प्रारब्ध का मारा हुआ एक इंसान हूँ
उहापोह के चक्र में डूबता उतराता रहा
क्या पता तुम्हें कैसी हस्ती औ पहचान हूँ ।

                                     शैल सिंह


मंगलवार, 23 जून 2015

फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है

  •  फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है 


डर सताती रही ख़ौफ़ की हर घडी
फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है
मन मतवाला गज सा हुआ जा रहा
ख़ुशी चल एक विरहन के दर आई है ,

बिछ गए हर डगर पर पलक पांवड़े
उनके आने की जबसे खबर आई है
सरसराहट हवा की प्रिय आहट लगे
उनके कदमों की ख़ुश्बू शहर आई है ,

महकने लगी आज़ हर दिशा हर गली 
ज़िस्म का उनके चन्दन पवन लाई है
सांसें स्वागत में लीन आज़ पागल हुईं
कोई रोके ना पथ ज़िंदगी भवन आई है ,

उठे निष्पन्द वदन में भी अंगड़ाईयां
सूनी अँखियों में अंजन संवर आई है,
मन का हिरना कुलांचे भरने लगा है
मन समंदर में हलचल लहर आई है ,

भोली आशाएं कबसे तृषित थीं सनम
वही परिचित सा झोंका ज़िगर भाई है
चाँद,तारों,सितारों की बारात का बिंब
लगे नीले नभ से धरा पर उतर आई है ,

मुख मलिन दिखाता सदा रहा आइना
उसी में सौ रंग ख़ुशी के नज़र आई है
तार झंकृत नयन के इक झलक वास्ते
पथ निरख हर बटोही के गुजर आई है ,

सज कलाई में सावन की हरी चूड़ियाँ
बोल अधरों पर कजरी का भर लाई है
कितने कुर्बां हुए सुहाग वतन के लिए
गृह इस सधवा की रोली मगर आई है ,

                                    शैल सिंह





दो क्षणिकाएँ

                            ( १ )

देखिये गौर से अब गरीबी नहीं कहीं देश में
बहरूपियों की आदत गरीबी के चोले में है
अलहदी बना दिया है बी. पी. एल. कार्ड ने
उसपे आरक्षण की सौगात भी  झोली में है ,
असाध्य बीमारी हुआ है आरक्षण का कोढ़
बौद्धिकता का स्तर खतरे की टोली में है                        
जिन्हें मिल जा रहा सब कुछ बैठे बिठाये
उनमें आ गया नक्शा अहंकार बोली में है  ।

                 ( २ )



बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...