रविवार, 16 सितंबर 2012

'हिंदी दिवस पर'

           हम सभी देश वासियों के लिए यह शर्म की बात है कि हिंदी राष्ट्र भाषा होते हुवे भी अपनों के द्वारा अपने ही देश में हिंदी दिवस मनाने का प्रयोजन जगह- जगह पर किया जा रहा है ।अंग्रेजी की गुलाम हिंदी है या हिंदी की गुलाम अंग्रेजी ,इसी पर आधारित मेरी यह रचना पढ़िए और अपनी राय सुझाइए।                       

                            'हिंदी दिवस पर'  

रफ्ता-रफ्ता सेंध लगा अंग्रेजी 
घर में हिन्दी के हुई सयानी  
मेहमाननवाजी में खायी धोखा 
अपने ही घर में हुयी  बेगानी /

जड़ तक दिलो दिमाग पे छाई 
चट कर दी भावों भरा खजाना 
बेअदब हर कोने ठाठ बघारती 
मातृभाषा हिंदी भरती हर्जाना /

ये कितनी ढीठ है घाघ अंग्रेजी 
किस दुनियाँ से परा कर आयी 
हम पर हावी हो ऐसे फिरती 
घर में हिंदी की बनी लुगाई /

वक्त की मार में हो गयी बीमार 
अंग्रेजी महामारी ने पाँव पसारा 
आलम आज़ कि सांसे गिन-गिन 
हिंदी अपनी देहरी करे गुजारा /

मदर्स,टीचर्स,फादर्स,फ्रैंड्स डे 
चलन फलां ढेंका के बढ़-चढ़ के 
इठलाती बोले संग खेले अंग्रेजी 
घर में हिन्दी के सर चढ़-चढ़ के /

हिंदी दिवस का एक निवाला दे 
देश आज़ादी का बिगुल बजाता 
राष्ट्र भाषा का कर घोर अनादर
स्वदेशी हिन्दी को ठगा है जाता /

सुननें में लगता कितना अजीब 
हिंदी दिवस मनाना हिन्दुस्तानी 
दैवी भाषा किस  बिना पर तज 
अंग्रेजियत फैशन मन में ठानी /
                                   शैल सिंह 
       

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