शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

अभिव्यक्ति की आजादी है इसीलिए अभिव्यक्त किया है

अभिव्यक्ति की आजादी है 

इसीलिए अभिव्यक्त किया 

हम ध्वज चाँद पर फहरायेंगे क्षितिज का चाँद हमारा है
देखो तीन रंगों के बीच चक्र अभिप्राय बड़ा ही प्यारा है ,

तूं झंडे पर चित्र बना चाँद का,ध्यान रहे आधा अधूरा हो
आधे चाँद के बीचो-बीच में बस एक ही टंका सितारा हो  ,

पवन नीर सब अपना सूरज पर भी अधिकार हमारा है
आस्मा सहित चाँद के जुगनूँ तारे,सबपर राज हमारा है ,

जल ज़मज़म का पीकर भी तेरे मन का सोता ख़ारा है
यहाँ हर मन के सोते से फूटती गंगा की पावन धारा है ,

अपराध की फ़ेहरिस्तों से गदगद होता ख़ुदा तुम्हारा है
सद्गगुण,सुमार्ग,सत्कर्म से अभिभूत होता नाथ हमारा है ।

                                                 शैल सिंह 

गुरुवार, 28 जुलाई 2016

अपनों से ही ठोकर खाई

अपनों से ही ठोकर खाई

यह कविता उनके लिए जो परिश्रमी मेधावी होने के बावजूद भी लोगों के अन्याय का शिकार होते है ,फिर भी हारते टूटते नहीं ,गिर के फिर संभल जाते है अगली लड़ाई के लिये और पुनः संकल्प की टहनियों को संजीवनी दे पुनर्जीवित करते हैं मंजिल तक पहुँचने के हर प्रयास को ,बार-बार परास्त हो साहस को और शक्तिशाली बना विरोधियों को मजबूर कर देते हैं सत्य की ठोस जमीं पर उतरने को। संकटों में घिरकर भी लक्ष्य को सकारात्मक
बना लेते हैं सामर्थ्यवान की गलत नीति को धराशाई कर देते हैं और सत्य की जीत पर वो कभी-कभी छलांगे भी लगा लेते हैं,जो भी कुर्सी का गलत उपयोग करते हैं उनके लिए भी मेरी ये कविता है ,किसी के पक्षपात के लिए किसी योग्य का अहित नहीं करना चाहिए ।



तूं भी कश्ती पे सवार है कश्ती मेरी डूबाने वाला
तूं भी धरती पे इंसान है भगवान नहीं कहलाने वाला
डर तूफ़ां की मौन हलचल से ज्वार उफ़ान पे आने वाला
ईश्वर की लाठी बेआवाज़ सुन वही तुझे तेरी औक़ात बताने वाला ,

इतना गुरूर हस्ती पे हस्ती ही सबक सिखाएगी
जिस चाबुक से किया वार अक़्ल वही ठिकाने लाएगी
बरसा शब्दों के ज़हर बूझे कोड़े चैन क़रार है छीन लिया
पूर्वाग्रह से ग्रसित क्यूँ हिस्से का,दिन का उगता सूरज लील लिया ,

देर है अंधेर नहीं तुझपे भी वक़्त क़हर ढहायेगी
तड़पा-तड़पा कर करनी का,तुझे भी मज़ा चखाएगी
अपनों ने ही छला बहुत पग-पग अपनों से ही ठोकर खाई
धर्मपरायण हो भी भटक रही लड़नी पड़ी है हक़ के लिए लड़ाई ,

बहुत आँधियों ने तोला बहुत बवण्डरों संग खेला
बदनीयत बलायें दृढ़ इरादों की चट्टानें हिला ना पाईं
बुझा न पाईं दीये की लौ का अडिग मनोबल हठी हवाएं 
औंधे लौट गईं सनकी लहरें लक्ष्य के साहिल से जब आ टकराईं ।

                                                         शैल सिंह

मंगलवार, 26 जुलाई 2016

फर्ज बताने हम निकलें हैं


कारगिल दिवस पर 




















कारगिल दिवस पर 


अखण्ड भारत का अखण्ड दीप जलाने हम निकले हैं
करें हिन्द पर प्राणउत्सर्ग अलख जगाने हम निकले हैं
ज्योति से ज्योति बिखेरने की मुहीम पर हम निकले हैं
साथ कारवां का निभाने की अपील पर हम निकले हैं

जागो भारतवंशी एकता का हार पिराने हम निकले हैं
शहादतों का कर्ज उतारना फर्ज बताने हम निकलें हैं
ग़द्दारों की विकृत ज़मीर को धिक्कारने हम निकले हैं
रचनाधर्मिता की मशाल से तुम्हें जगाने हम निकले हैं

                                                  शैल सिंह 

सोमवार, 25 जुलाई 2016

क्या भाव हृदय के जाने

क्या भाव हृदय के जाने 


तूं पत्थर तेरा दिल पत्थर
क्या भाव हृदय के जाने
क्यों लहूलुहान विश्वास करे
कभी आस्था नहीं पहचाने

मनकों की माला फेरूँ क्या
कैसे नाम रटूं तेरा जिह्वा पर
क्या पुष्पों का हार चढाऊँ
और क्या-क्या वारूं दीया पर

सच्चरित्रता,सत्कर्म,ईमान,कर्मठता का
ग़र तुझे फल देना घातक इतना
तो फिर सन्मार्ग चलें क्यों तेरे लिए   
जियें चल कुमार्ग पर जीवन अपना

कितना धैर्य का लेगा इम्तिहान तूं
कितनी बार करेगा नाइंसाफ़ी 
भक्ति-भावना छोड़ दी अब तो
करले जितनी करनी वादाख़िलाफ़ी 

तेरी दिव्य दृष्टि किस काम की जब
उचित-अनुचित अनर्थ ना देख सके
तूं पाखंडी पाषाण की निष्ठुर मूरत
होता कितना अन्याय ना रोक सके

ग़र तेरी लाठी में दम है इतना
तो कर वार मेरे दुश्मन पर
जिसने इतना गहरा घाव दिया
कर बेआवाज़ प्रहार उस तन पर। 



                     शैल सिंह

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे  ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से कद अंबर...