शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

वसंत ऋतु पर कविता '' शिरोमणि वसन्त ''

   '' शिरोमणि वसन्त ''


जन-मन में गुदगुदी प्रकृति में छाया हर्ष 
शीतल,मंद,सुगन्धित,समीर का पा स्पर्श ,

बीत गया ऋतु शिशिर,आई ऋतु वसन्ती
बड़ी सुहानी मनमोहक,लगे ऋतु वसन्ती ,
प्रकृति का उपहार ले,आयी ऋतु वसन्ती
मन करे मतवाला ये रूमानी ऋतु वसंती ,

फूले गेंदा,गुलाब,सूरजमुखी फूली सरसों
अमुवा के मञ्जर पर मुग्ध कुहुकिनी हरषे ,
कोयल कूके कुहू-कुहू गायें गुन-गुन भौंरे
मयूर नाचें मग्न,उड़तीं तितलियां ठौरे-ठौरे ,

गुलाबी मौसम में मस्ती भर दिए मधुमास
घोल दिए अमृतरस दिशा-दिशा ऋतुराज ,
भर दिए नथुने मधुमाती स्नेहिल सुगन्ध से
नव सिंगार कर इठलाती प्रकृति उद्दंड से ,

छजें टहनियां हरित पल्लव के परिधान में
धरा लगती नवोढ़ी दुल्हन धानी लिबास में ,
मखमली चादर लपेटे धरित्रि अंग-अंग पर
मानव मन मुग्ध झूमे वसन्त के सौन्दर्य पर ,

वृक्ष,लतायें और पुहुप सज-धज प्रफुल्ल हैं
भ्रमरे करें अठखेलियां पी मकरंद टुल्ल हैं,
प्रकृति पूरे यौवन पर डुबी हास-विलास में
चारों तरफ वसंतोत्सव मन रहे उल्लास में। 

                                    शैल सिंह

इश्क़ की दीवानगी

इश्क़ की दीवानगी 

दीवाना किया आशिक़ी ने
बेइंतहा प्यार में
तप रही है देह सारी
इश्क़ के बुख़ार में ,

बस में नहीं दिल जरा भी
होश नहीं ख़ुमार में
निग़ाहें टकटकी साधे रहें 
किसी के इंतज़ार में ,

ख़्वाब बुनते बीतते दिन
दिल लगे ना कारोबार में
आँखें इक झलक भी चार हों
खिल जाते दीदार के बहार में ,

वफ़ा भी करे ग़र बेवफ़ाई
आनन्द आए तक़रार में
मनाना,रूठना शिकवे,गीले
रोज मनुहार करते प्यार में ,

भय बदनाम होने का भी
लब कर देता ज़िक्र बेक़रार में
गढ़ते तारीफ़ों के क़लमें सदा
इशारों से बेनाम के बाज़ार में ,

इश्क़ में मौजे हैं,तूफां है लेकिन
इश्क़ इक सजा भी है पठार में
दिल ये नादान जानता ही नहीं
काँच ही काँच प्यार के दयार में ,

फासला नहीं फूलों,काँटों में
अड़चनें मोहब्बतों के ज्वार में
मुरादें पूरी हो मर्ज़ी ख़ुदा की
बेतहाशा ग़म भी है इक़रार में।

                          शैल सिंह






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