" विरहवर्णन एक विरहणी का "
निष्प्रभ हो गए उद्विग्न दो नयन
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।
मन के आंगन में चौका पुराये हुए
तन की देहरी रंगोली खिंचाये हुए
निशी-बासर प्रत्याशा की ताक पर
नेत्र की वर्तिका नित जलाये हुए
मग जोहती रही पलक-पांवड़े बिछा
हृदय के द्वार तोरण सजाये हुए
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।
सावन की रिमझिम फुहारें बरस
कर गईं धरणी का आँचल सरस
उर अदहन सरिखा खदकता रहा
कर सकी ना तरल तन बरखा हरष
वसंतदूती की कूक से उठी हूक हिय
यामिनी भी कसकती रही खा तरस
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।
वियोग में तप रही दीपिका की तरह
प्रज्वलित हो जल रही शिखा की तरह
म्लान तरूनाई मुख कान्ति कुम्हला गई
ज़िन्दगी स्याह लग रही निशा की तरह
विरह के यज्ञ में स्वाहा हो रही उमर
वक्त छल रहा नि:शब्द व्यथा की तरह
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।
दर्द दिल के सभी भावों ने ले लिए
भावों को शब्दों की मोती में पिरो लिए
शब्दों को सुर में ढाला गीत बन गये
मर्म के गीत गा ख़ुद से ख़ुद रो लिए
सांसों के साज़ पर साध अहसासों को
बज्म़ पीर की सजा हम सजल हो लिए
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।
निष्प्रभ हो गए उद्विग्न दो नयन
मगर तुम न आए तो मैं क्या करूं।
निष्प्रभ--प्रभाहीन
वसंतदूती--कोयल
शैल सिंह
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