शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

'' गजल '' ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,

ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते


शेर..
हर्फ़ उल्फ़त के पढ़ लेना ग़ौर से
लफ्जों की पोशाक पेन्ही हैं ऑंखें
अल्फ़ाज़ भले रहते हों मौन मग़र  
हृदय की आवाज़ होती हैं आँखें ।

अफ़साने दिल के सुना देते आँखों-आँखों
ज़ुबां कंपकंपा गयीं जो बात कहते-कहते,

बेसाख़्ता मिलीं बज़्म में जो निग़ाहें हमारी
कुछ तो बुदबुदा गईं पलकें झुकते-झुकते,

सूनी इक दूजे के धड़कनों की नाद हमने 
जाने क्यूँ लड़खड़ा गये क़दम बढ़ते-बढ़ते,

मस्ती सांसों में छाई मुस्कराये है ज़िन्दगी
ऐसा मय पिला गईं दो आँखें चलते-चलते,

सजा रखी रात-दिन ख़्यालों की महफ़िल
दबे पांव आता है कोई रोज महके-महके,

मढ़ा कर नयन के फ़्रेम में तस्वीर उनकी
लुत्फ़ खूब उठा रही हूँ ख़्वाब बुनते-बुनते,

उकेरुं रोज रेखाचित्र दिल के कैनवास पे
क्या-क्या सोचूँ तूलिका से रंग भरते-भरते,

डर न होता ज़माने का चाहत के दरमियाँ
खोल रख देता ग्रन्थ यह दिल हँसते-हँसते।

                                   शैल सिंह


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