'' शिरोमणि वसन्त ''
जन-मन में गुदगुदी प्रकृति में छाया हर्ष
शीतल,मंद,सुगन्धित,समीर का पा स्पर्श ,
बीत गया ऋतु शिशिर,आई ऋतु वसन्ती
बड़ी सुहानी मनमोहक,लगे ऋतु वसन्ती ,
प्रकृति का उपहार ले,आयी ऋतु वसन्ती
मन करे मतवाला ये रूमानी ऋतु वसंती ,
फूले गेंदा,गुलाब,सूरजमुखी फूली सरसों
अमुवा के मञ्जर पर मुग्ध कुहुकिनी हरषे ,
कोयल कूके कुहू-कुहू गायें गुन-गुन भौंरे
मयूर नाचें मग्न,उड़तीं तितलियां ठौरे-ठौरे ,
गुलाबी मौसम में मस्ती भर दिए मधुमास
घोल दिए अमृतरस दिशा-दिशा ऋतुराज ,
भर दिए नथुने मधुमाती स्नेहिल सुगन्ध से
भर दिए नथुने मधुमाती स्नेहिल सुगन्ध से
नव सिंगार कर इठलाती प्रकृति उद्दंड से ,
छजें टहनियां हरित पल्लव के परिधान में
धरा लगती नवोढ़ी दुल्हन धानी लिबास में ,
धरा लगती नवोढ़ी दुल्हन धानी लिबास में ,
मखमली चादर लपेटे धरित्रि अंग-अंग पर
मानव मन मुग्ध झूमे वसन्त के सौन्दर्य पर ,
मानव मन मुग्ध झूमे वसन्त के सौन्दर्य पर ,
वृक्ष,लतायें और पुहुप सज-धज प्रफुल्ल हैं
भ्रमरे करें अठखेलियां पी मकरंद टुल्ल हैं,
प्रकृति पूरे यौवन पर डुबी हास-विलास में
चारों तरफ वसंतोत्सव मन रहे उल्लास में।
शैल सिंह
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