" नशीली आंखों पर ग़ज़ल "
नशीली आंखों के चर्चे सुना था बहुत
क़शिश ऐसी कि देख बेसबर हो गया
मदिरालय से बढ़ कर कमसिन नयन
कुछ सोचा ना था इश्क़ मगर हो गया ,
कुछ सोचा ना था इश्क़ मगर हो गया ,
झुक गयी पलकें जो शर्म से आपकी
साक़ी सा छलका पैमाना तर हो गया
यूं लड़खड़ाने लगे बिन पिए ही कदम
मय सी आँखों का ऐसा असर हो गया ,
साक़ी सा छलका पैमाना तर हो गया
यूं लड़खड़ाने लगे बिन पिए ही कदम
मय सी आँखों का ऐसा असर हो गया ,
आपके शोख़ हया के शोख़ अंदाज़ ही
ज़ुल्म ढाये कि ज़ख़्म-ए-ज़िगर हो गया
इस अदा की रज़ा क्या कह भी दीजिए
जिसपे दिल मेहरबां इस क़दर हो गया ,
समन्दर हैं दरिया या तेरे चश्म मयक़दा
ज़ुल्म ढाये कि ज़ख़्म-ए-ज़िगर हो गया
इस अदा की रज़ा क्या कह भी दीजिए
जिसपे दिल मेहरबां इस क़दर हो गया ,
समन्दर हैं दरिया या तेरे चश्म मयक़दा
था ना मयकश मैं उन्मत्त मगर हो गया
मस्त आँखों का आशिक़ बना ही दिया
इतना बोलतीं हैं वाकिफ़ शहर हो गया ,
गुलाब की पांखुरी सा टहक लाल अधर
क़ातिल मुस्कान मदहोश अगर हो गया
क़ातिल मुस्कान मदहोश अगर हो गया
जाने बेगुनाह दिल का होगा अंज़ाम क्या
आँंखें संवाद कीं दहर को खबर हो गया ,
हब्शी आँखें लूटीं दिल का चैना औ सुकूँ
लुटा आशनाई में क़रार मैं बेघर हो गया
ज्यूँ बंद करूँ आँखें आतीं तुम ख़्वाबों में
बेतरह रतजगा में भोर का पहर हो गया ।
मयकदा--शराब पीने का स्थान
मयकश--शराबी ।
शैल सिंह
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