शुक्रवार, 13 जुलाई 2018

नारी व्यथा पर कविता

नारी व्यथा पर कविता--
हे ईश ! मेरी मृगतृष्णा मिटा दो,


थक गई हूँ विषम भार ढोते-ढोते 
ज़िम्मेदारियां जो कांधे पर रखे तुम,
पूँजी सौंप तुम्हें उन कर्तव्यों की 
अब मुक्त होना चाहती हूँ ,
कह रहा मन खिन्न हो जो 
उस व्यथा का जरा संज्ञान लो,
खो चुकी सर्वस्व निज का 
तमाम रिश्तों के जंजाल में,
बेटी,मां,बहन,भार्या,बहू से  
खुद को परित्यक्त कर , 
इन संबोधनों से रिक्त होना चाहती हूँ ,
कुलटा,बेशरम,चरित्रहीन,पतिता 
की उपाधि का विभूषण ,
जो ठप्पा कंचन कामिनी पर 
तुम्हें उदारता से सहृदय दान कर  
उन्मुक्त होना चाहती हूँ,
मेरे त्याग ने लूटा मुझे 
मेरी करूणा ने किया छिन्न-भिन्न,
की ममता की धरा लज्जित मुझे 
वात्सल्य ने निचोड़ा बहुत,
बीच चौराहे पर हुई तार-तार
मुझे मेरे आँचल ने किया नंगा धिक् 
आत्मबल मृतप्राय सा 
नाज़ुक पंखुरी से घायल हुई,
अब नहीं कोमल भावनाओं में 
पुनः संलिप्त होना चाहती हूँ,
ना ही अब देवी रही मैं
ना ही चण्डी, दुर्गा,भवानी,
तेरी संरचना ने कर निढाल मुझको
वहशियों का निवाला बनाया,
कद्र नहींं तेरे सुन्दर अनुकृति की 
जब इस नश्वर, विभत्स संसार में,
ढंक सकती नहीं लाज अपनी
जब जन्मदात्री ही लुट रही बाजार में,
तेरी कलाकृति और तूलिका ने
पूरी जिन्दगी दोज़ख किया,
अबोध सी मुस्कान चाहती अब
तेरा चुटकी भर स्नेह पा,
जब कुंदन सा अपरूप गढ़ा  
तो अपराजेय भी बनाते ,
सदा दपदपाती ही रहूँ
सबल लौह अवयव ही बनाते ,
आज पिंजर की कनक तीलियों का 
भ्रामक मोहबन्धन छोड़कर,
बस तेरे विस्तृत गगन का एक कोना 
पा तृप्त होना चाहती हूँ ।

                       शैल सिंह

सर्वाधिकार सुरक्षित 



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