सदियों पुरानी तोड़ रूढ़ियां
आजाद किया है खुद को,
परम्पराओं की तोड़ बेड़ियां,
कुशल सफर क्षितिज तक का
दिखा दिया है जग को,
देखो हमको अबला कहने वालों,
सबल,सशक्त बना लिया है खुद को,
रोक नहीं सकतीं हमको
अब श्रृंगार की जंजीरें,
देखो हर कालम में नारी की
उभरती हुई सफल तस्वीरें
आंचल में हमारे जन्नत है
हम ममता की मूरत हैं
हमसे ही है सृष्टि सारी
रची हमने ये दुनिया खूबसूरत है।
शैल सिंह
ना मैं जानूं रदीफ़ ,काफिया ना मात्राओं की गणना , पंत, निराला की भाँति ना छंद व्याकरण भाषा बंधना , मकसद बस इक कतार में शुचि सुन्दर भावों को गढ़ना , अंतस के बहुविधि फूल झरे हैं गहराई उद्गारों की पढ़ना । निश्छल ,अविरल ,रसधार बही कल-कल भावों की सरिता , अंतर की छलका दी गागर फिर उमड़ी लहरों सी कविता , प्रतिष्ठित कवियों की कतार में अवतरित ,अपरचित फूल हूँ , साहित्य पथ की सुधि पाठकों अंजानी अनदेखी धूल हूँ । सर्वाधिकार सुरक्षित ''शैल सिंह'' Copyright '' shailsingh ''
गुरुवार, 8 मार्च 2018
महिला दिवस पर मेरी रचना
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