'' गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की ''
उमड़ कर बही वेदना जो अश्रु धार में
बह गई उनके यादों की धूप-छांव भी
वहम ही सही तो भी कुछ कम ना था
हृदय में था बसा भले पीर का गाँव ही ,
काश होती व्यथा की जुबान भी अगर
मुस्कराती नहीं मैं ग़म छुपा इस तरह
न भावना का उमड़ता अथाह समंदर
न ग्रन्थ लिखती ज़िन्दगी का इस तरह ,
एकाकीपन से मुझे तो अटूट प्यार था
क्यूँ रोज आता ख़्यालों में दबे पांव वो
सुलगाता विरह की अगन से अंतहीन
छितर जाता है हर्फ़ सा काग़ज़ों पे जो ,
वो आकर मेरी कल्पना कुञ्ज की गली
पुराने मौसम का पुरवा बहा कर गया
फिर से अनवरत् ख़्वाबों का कांच के
जत्था पलकों पर मेरी बिछा कर गया ,
फिर से अनवरत् ख़्वाबों का कांच के
जत्था पलकों पर मेरी बिछा कर गया ,
भरकर उन्माद पोर-पोर में वसन्त सा
पी अधर का पराग उर लगा कर गया
गीली-गीली फुहारों से भींगो यादों की
आलम तन्हाई का यूँ महका कर गया ,
नई कोंपलें खिला यादों के दरख़्त पर
झट उदासी के पतझड़ हरा कर गया
अतीत की डायरी के गर्द पोंछ नेह से
अतीत की डायरी के गर्द पोंछ नेह से
तकलीफ़ों की सलवटें मिटा कर गया ,
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
शैल सिंह
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