बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

कहीं चाहत न खता बन जाए

कहीं चाहत न खता बन जाए  


अँधेरे पूछते कौतूहल से  
शमा  किसने जलाई है 
पूनम के चाँद सा रौशन 
कर रही मेरी तन्हाई हैं ।

शय्या के हर सलवट में 
सुगन्ध   तेरी  समाई है
अन्तर्मन जड़ चेतन में 
जीवन्त तेरी परछाई है ।

हृदय के अनंत सागर में
लहराते तुम लहरों सा
दमकते कुमकुम जैसे हो
दिवाकर  के किरणों सा ।

घायल हुई दीदार से तेरे 
मन रहता मेरा अवश सा
इंद्रजाल रूपी झील में तेरे
खिला रहता रूप कंवल सा ।

जब भी करती हूँ कोशिश  
लिख तेरा नाम मिटाने की
लगती पेंग मारने प्रीत तेरी
जब करूँ हठ तुझे भुलाने की ।

मन ही मन हूँ लगी पूजने
चेष्टा की जबभी ये बताने की
कहीं चाहत ख़ता न बन जाए
डरा दीं आँखें जमाने की ।

मादक सी आँखों में मेरे 
माज़ी बादल बन घुमड़ता है
बेमौसम बारिश की तरह 
टपाटप अनायास बरसता है ।

कैसे बहलाऊँ पगले मन को
बावरा मन नहीं बहलता है
इस क़दर बसा है तूं सांसों में 
धड़कन बन धड़कता है ।

बेबस बहुत  मोहब्बत है 
उलझन में बहुत है राहत
दुनिया से टकराने की भी 
नहीं उल्फ़त में है साहस ।

तूं घुला धमनियों,शिराओं में 
कहाँ से गले पड़ी मेरी आफ़त
खफ़ा होऊं तुझसे या खुद से
है असमंजस में बुरी हालत ।

      माज़ी--अतीत    
                           शैल सिंह

1 टिप्पणी:

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