प्रेम पर कविता
'' दृग का अमृत कलश छलका लूंगी मैं ''
उर के उद्गार अगर सौंप दो तुम मुझे
ढाल कर गीतों में सुमधुर तान भर
अपने अधरों को बांसुरी बना लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर......................।
उर के उद्गार अगर......................।
तरंगों की तरह हृदय की तलहटी में
प्रमाद में तन्मय नीरव तरल बिंदु में
तुम्हारे कर्णों में घोल मोहिनी रागिनी,
उतर जाऊँगी अंत के अतल सिंधु में
स्वप्न की अप्रकट अभिव्यंजना मुख़र
सुहाने लय में प्रखर कर सुना लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर......................।
तुम्हारे कर्णों में घोल मोहिनी रागिनी,
उतर जाऊँगी अंत के अतल सिंधु में
स्वप्न की अप्रकट अभिव्यंजना मुख़र
सुहाने लय में प्रखर कर सुना लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर......................।
हृदय दहलीज़ ग़र खोलकर तुम जरा
निरख नेपथ्य से प्रेम पूरित नयन से
नेह की उष्मा से करो अभिनन्दन जो
लूंगी भर अंक में पुलकित चितवन से,
उर के उद्वेलनों की रच रंगोली अतुल
दृग का अमृत कलश छलका लूंगी मैं,
उर के उद्गार अगर.......................।
चित्र मेरा ग़र पलकों के श्यामपट्ट पर
उकेर लो तुम कल्पनाओं के अर्श पर
देह गंध से सुवासित हर बंध खोलकर
बहाकर उत्स आह्लादों का तेरे दर्द पर
अपनी चेतना,संवेदना कर अर्पित तुझे
हृदय के क्रंदन को कुंदन बना लूंगी मैं ,
उर के उद्गार अगर.......................।
चित्र मेरा ग़र पलकों के श्यामपट्ट पर
उकेर लो तुम कल्पनाओं के अर्श पर
देह गंध से सुवासित हर बंध खोलकर
बहाकर उत्स आह्लादों का तेरे दर्द पर
अपनी चेतना,संवेदना कर अर्पित तुझे
हृदय के क्रंदन को कुंदन बना लूंगी मैं ,
उर के उद्गार अगर.......................।
प्रमाद--नशा , नीरव--शब्द रहित,
अंत--भीतरी, प्रखर--तेज,तीक्ष्ण
अंत--भीतरी, प्रखर--तेज,तीक्ष्ण
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
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