ग़ज़ल----
जो लफ़्ज़ों में बयां ना हो वो आॉंखों से समझ लेनाकि करती हूँ मोहब्बत कितना तुमसे वो समझ लेना
मुझको दीवानगी की हद तक मुहब्बत हो गई तुमसे
मत कुछ पूछना जो कहें ख़ामोशियाँ वो समझ लेना ।
तेरी हर ज़िक्र पर हर शब्द का शायरी में ढल जाना
तुझसे बात करते वक़्त नज़र नीची करके शरमाना
बार-बार मेरी तरफ़ तेरा देखना मेरा यूं घबरा जाना
अनजाने ही फिर इक दूजे की निग़ाहों में खो जाना ।
मोहब्बत का सुरूर कैसा न जानते तुम न जानें हम
कितनी मुश्किल भरी राहें न जानते तुम न जानें हम
चल पड़े बेफिक्र इस राह दहर ने जीना किया दुश्वार
कैसे नयनों ने किया शिकार न जाने तुम न जाने हम ।
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शैल सिंह
बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंमेरी रचना के अवलोकन हेतु आपका बहुत बहुत शुक्रिया आलोक जी
हटाएंवाह ! इश्क़ का रंग ऐसे ही चढ़ता है
जवाब देंहटाएंआपने मेरी पढ़ी बहुत बहुत धन्यवाद
हटाएंबहुत बहुत आभार आपका यशोदा जी
जवाब देंहटाएंशानदार लेखन 👌
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार आपका
हटाएंबहुत ही सुन्दर साहेब .
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद
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