मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नव वर्ष की पूर्व संध्या की पार्टी में


नव वर्ष की पूर्व संध्या की पार्टी में 


नए साल का आगाज़ महफ़िल सजी है  
ढेरों खुशियां मनाने ग़म भुलाने के लिए,

रब से करेंगे बंदगी हम सबकी ज़िंदगी का
हर लम्हा सुन्दर ख़ुशगवार बनाने के लिए,

आज की ठहरी हुई सी ख़ामोश ज़िंदगी में
रंगीन नूरानी जलवा बिखराने के लिए,

इक छोटी सी गुजारिश है आपसे दोस्तों 
मुस्कराइये चिरागे दिल जलाने के लिए,

कीमती वक़त लिया है आपका सज्ज्नों 
इस पल को हसीं यादगार बनाने के लिए ।

                                                शैल सिंह

शनिवार, 28 दिसंबर 2013

मेरी लाडो

      मेरी लाडो

मिले सपनों का शहजादा राजकुमार 
कब दिन दिखायेंगे रब ज़िया बेक़रार । 

मेरी लाडो रानी के हाथों में मेंहदी रचे 
पांव गह-गहबर महावर लगे लालसा   
माड़ो आँगन छवे और मंगल गान हो 
बजे शहनाई द्वार घर सजे लालसा। 

एक सपना संवारा मन के आसमान पे 
घर मिले वर सुदर्शन ऊँचे  ख़ानदान के 
ताकि चिंता ना फिकर करूँ कन्यादान पे 
मेरी लाडो को मिले हर ख़ुशी जहान के । 

मर गई है भूख प्यास हर गई है निंदिया 
नन्हीं मुन्नी सलोनी भई सयानी बिटिया 
मन चैन ना दिन रैन क्या बताऊँ बिटिया 
कैसा होगा दूल्हा राजा कब सगाई बिटिया। 

मम्मी पापा कि दुलारी प्राण प्यारी लाड़ली 
गर होता वश में रखती घर कुंवारी लाड़ली 
भोली भाली मेरी कितनी तूं अनाड़ी लाड़ली 
रीति दुनिया की निभानी हुई पाषाणी लाड़ली ।

भान कहाँ था अमानत ये पिया के नाम के 
कहती बेटा सरीखे मेरी लाडो अभिमान से 
जिसे नाज़ो से पाला रखा मान अभिमान से 
सहना कितना दुःखदाई प्रिय जुदाई जान से। 

रीति का अटूट कैसा यह अज़ीब दस्तूर है 
कि बेटी होकर घर से पराई नजर से दूर है
रस्मों रिवाज़ के निर्वहन का यह कैसा समां 
कि रोए दिल ज़ार-ज़ार तन से प्राण हो फ़ना।  
                                                     शैल सिंह  

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

मैं मेरी तन्हाई

मैं मेरी तन्हाई 


मन के आंगन बहती रहती
यादों की पुरवाई
इसीलिए भाई मुझको मैं मेरी तन्हाई ।
कुछ अतीत का कोना
कुछ कल का ताना-बाना
आज में जीती सुख से
अपनी धुन का गा के गाना ।
जोड़ों सी मीठी टीस उठे
कुछ दर्द भी ले अंगड़ाई
लगे सुहानी रहस्यमयी
दिन सी रात हुई अमराई ,
इसीलिए भाई मुझको मैं मेरी तन्हाई ।
भूल सकी ना जिसे कभी
अपना होना साबित करतीं
व्यर्थ की कितनी चीजें भी
मन को परिभाषित करतीं ।
बीते कल की भग्न प्राचीरें
वो आँखों में भर लाई 
नीम बेहोशी सी खुश्बू में
कितनी रातें जाग बिताई
इसीलिए भाई मुझको मैं मेरी तन्हाई ।
                                             
                                         शैल सिंह 


मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

सम्भल जाओ सत्तासीनों

सम्भल जाओ सत्तासीनों


सम्भल जाओ सत्तासीनों

रोज गिर रहा है राजनीति का स्तर निरन्तर 

हर कोई आंके इक दूजे को कम से कमतर 

 

दिन-दिन हो रहा सभी का चारित्रिक पतन 

मूल्यों से दुश्मनी,नैतिकता का हो रहा हनन 

 

ईमान बेच खा रहे हैं लोग ज़मीर बेच खा रहे
मौका परस्त नेता लोग ही,जुबान बेच खा रहे

 

तुच्छ स्वार्थ पूर्ति के लिए खुद को गिरा दिया है
मनुष्यता भी अब मर गई आदर्श मिटा दिया है

 

गम्भीर समस्यायें हैं क्या,मुद्दे ज्वलन्त क्या हैं

मंहगाई की मार में गरीबी का उपचार क्या है


हमारे मत का ले ख़जाना पतली गली दिखाते

अब हमने भी ठान लिया कैसे मजा हैं चखाते


बदलाव के इस दौर में ज़ुबानी वार कारगर नहीं
संभल जाओ सत्तासीनों इस वाणी का असर नहीं

 

राष्ट्र और समाज को राजनेता नीचा दिखा रहे हैं

भद्दे-भद्दे तंज कस राजनीति का स्तर गिरा रहे हैं


नमो-नमो,कमल के नाम से क्यों नींद उड़ गई है
आरोपों के फेहरिस्त से जनता और चिढ़ गई है

 


रविवार, 10 नवंबर 2013

भगवन तुमने ही तो कहा था

भगवन तुमने ही तो  कहा था

मेरे मन वीणा का तार छेड़कर 
निज व्यथा के गीत सुनाना मुझको
मेरे मन मन्दिर का द्वार खोलकर
बन साधक सदा रिझाना मुझको ।

कितनी बार नवाया शीश चरण में तेरे
गिरिजाघरो,गुरुद्वारों,साईं की ड्योढ़ी
मन कामना की खातिर भटक-भटक
कितने मंदिरों,मस्जिदों,की चढ़ सीढ़ी ।

दुःख,संकट,क्लेश,व्यथा तम् आँगन
मधुर-मधुर  कब गूँजेगी किलकारी
सीना चीर  अधर  पट  खोलूँ  अगर
तह  की  हिलक  उठेगी सिसकारी ।

गहरी आस्था और विश्वास  कवच पर
सारा जीवन न्यौछावर किया तुझ पर
कोई  खोट  हुई  या चूक  हुई मुझसे
कि  पूजा रही अधूरी  रूठा  मुझ पर ।

दर  आँचल   फैला   बस माँगा  साईं
सौगात  में  बिटिया  लिए  ख़ुशहाली
बढ़ें  प्रगति  पथ  पर नित स्वामी  मेरे ,
बेटे के सपनें हो इंद्रधनुषी रंग आली ।

क्यों  तिरते इतराते पलकों पर आकर
सपने सज संवर क्यों खुद ही इठलाते 
क्यों सुख सागर की लहरों पर गोते ले 
सपनों के हिंडोले पर बैठा बिखर जाते ।

ना तो छोड़ा कभी निष्ठा भक्ति का छोर 
ना  ही  कभी  कर्त्तव्यों  से  थी कतराई
क्यों क़तर उड़ानों का 'पर' भगवन तूने
किया ललित  सपनों  का रंग  धराशाई ।

क्या मिला शुचिता के पथ चल मुझको
कब श्रम की ही मिली अकूत मजदूरी
कहाँ लघु सपना ही मेरा  साकार हुआ
क्या ईश के हृदय धन की ऐसी मजबूरी ।

क्यों स्वप्न लोक के भंवरों में उलझाकर
कभी कश्ती को दिये नहीं किनारा तुम 
क्यों बनवाया नीड़ तूने भरभराते रेतों पे
निगलवा लहरों से दिये नहीं सहारा तुम  ।

ना तो कभी ठिकाना सूरज पर माँगा मैंने 
ना ही कभी की दिन में तारों की ख्वाहिश
बस चाहत के पांवों टेसू रंग भर देना साईं   
बस इत्ती सी ही तो की थी तुझसे गुज़ारिश ।

अरदास ख़ुदा की किया,अजान मस्जिद में
मंदिर में छेड़ तरन्नुम रत रही राम भजन में
चला गया जीवन सारा थाल सजा भरमाने में
ऐ पत्थर के देवता बस तुझे मनाने रिझाने में ।

                                                  शैल सिंह

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

''हिंदी साक्षरता दिवस पर ये रचना''


''हिंदी साक्षरता दिवस पर  ये रचना''


रफ्ता-रफ्ता सेंध लगा अंग्रेजी
घर  में हिन्दी  के हुई  सयानी
मेहमाननवाजी में खाई धोखा
अपने  ही  घर  में हुई  बेगानी।

       जड़ तक दिलो दिमाग पर छाई
       चट कर दी भावों भरा खजाना
       बेअदब हर कोने ठाठ बघारती
       राष्ट्र भाषा हिदी भरती हर्जाना।

कितनी ढीठ है ये घाघ अंग्रेजी
किस दुनिया से  परा कर आई
हम पर  हावी  हो  ऐसे  फिरती
घर  में  हिंदी  की  बनी  लुगाई।

      वक्त की  मार  में  हो गयी  बीमार
      अंग्रेजी  महामारी  ने पाँव पसारा
      आलम आज कि सांसें गिन-गिन
      हिंदी  अपनी   देहरी   करे  गुजारा।

मदर्स ,टीचर्स ,फादर्स ,फ्रैंड्स  डे
चलन फलां ,ढेंका के  बढ़  चढ़के
इठलाती बोले ,संग खेले अंग्रेजी
घर  में  हिंदी  के  सर चढ़-चढ़ के।

       हिंदी दिवस का एक निवाला दे
       देश आजादी का विगुल बजाता
       राष्ट्र भाषा का कर घोर अनादर
       स्वदेशी  हिंदी को ठगा है जाता।

सुनने में  लगता कितना अजीब
हिंदी दिवस  मनाना  हिंदुस्तानी
दैवी  भाषा  किस  बिना पर तज
अंग्रेजियत  फैशन  मन में ठानी।

                                                    शैल सिंह





     


शनिवार, 7 सितंबर 2013

दिल्ली,बाम्बे के रेप काण्ड और हालात पर 


दिल्ली,बाम्बे के रेप काण्ड और हालात पर 

         नारी जागृति के लिए 

कर इतनी बुलंद आवाज कि घूंट अपमान का अंगार बरसाये
सहनशक्ति सीमा तोड़ दे दुर्गा का विकराल अवतार अपनाये
डरा बगावती मुहिम से, विभत्स व्यभिचार  वाकया ना दुहराये
दूषित सोच का मिटे तमस,अस्तित्व की आ हम ज्योति जलायें 

ऐसे कामान्ध पुरुषत्व पर धिक्कार जो काबू में ना रखा जाये
किसी रक्षक का ऐसा हश्र हो दुबारा कभी सोचा ना ये जाये
इतना क्षत-विक्षत करो अंग कि दुस्साहस तार-तार हो जाये
बेमिसाल तस्वीर करो पेश ऐसी जग सारा शर्मसार हो जाये
दिखा अंतर्द्वंद की वहशत ताकि दरिंदों को आगाज़ हो जाये 
कि क्या हस्ती हमारी भी संसार में  अजूबा अन्दाज़ छा जाये,

क्यूँ अग्नि परीक्षा दें हमीं क्यों चीरहरण हमारा हो सरे राह में
हम अल्पवसना हों या पर्दानशीं या चलती अकेली हों राह में
युवती,किशोरी,बालिका या प्रौढ़ा कहीं हों तनहा रात स्याह में
कोई भी कौन होते है सीमाएं खींचने वाले हमारे हसीं चाह में
ऐसा करो कि पाबन्द मीनारों की टूटें सींखचें,दीवारें ढह जायें
अन्यथा कहीं अमर्ष ऐसा क़हर न बरपा दे कुहराम मच जाये

हम सुन्दर रचना भगवान की पावन माँ,बहन,संगिनी,बेटियां
हमारी शालीनता,सहृदयता को कोई समझ मत कमजोरियां
वक़्त का तगादा बदल ले अब विकृत मानसिकता ये दुनियां
वर्जनाओं के तोड़ विद्रूप पहरे कर ले स्वतंत्र पाँव की बेड़ियाँ
खुद का करो प्रभुत्व कायम पुरुषों के समकक्ष नाम हो जाये
मर्दों के दृश्य नजरिये में हो तब्दीली भष्म ये तकरार हो जाये 

क्यों इज्जत का ठीकरा हमेशा सर हमारे ही सिर्फ मढ़ा गया
क्यों हमें ,हमारी निधि को संरक्षण का मोहताज बनाया गया
त्याग समर्पण की बन मूरत न बस यूँ ही छलती रहो खुद को 
आबरू पर लगी खरोंचें सदा नासूर बनी बेंधती रहेंगी तुझको
कुछ ऐसा करो वहशियों के भूखे जिस्म को आग निगल जाये
लगा दो आग नापाक ईरादों में कि तन कोई दाग ना रह जाये 

कर इतनी बुलंद …।
अमर्ष---आक्रोश 

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...