मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

ऐ ख़ुदा --

ऐ ख़ुदा --

                ना तो हीरे रतन की मैं खान मांगती हूँ
                  ना चाँद,तारे,सूरज,आसमान मांगती हूँ
              मेरे हिस्से की धूप का बस दे दे किला
                  जरुरत की जीस्त के सामान मांगती हूँ ।


               फाड़कर ना दे छप्पर कि पागल हो जाऊँ
                    रूठकर ना दे मन का कि घायल हो जाऊँ 
              अपने दुवाओं की सारी कतरनें बख़्श देना
                  कि तेरी बंदगी की ख़ुदा मैं क़ायल हो जाऊँ । 


              गुज़ारिश है आँखों में वो तदवीर बना देना
                    मेरी ख़्वाहिशों का मेरे तक़दीर बना देना
             टूटकर कोई तारा फ़लक़ से दामन आ गिरे
                    मेरे बदा में वो ख़ूबसूरत तस्वीर बना देना । 
     


                                                                        शैल सिंह

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

गज़ल " बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें "

गज़ल " बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें "

नाम पर आपके हम मुस्करा क्या दिए 
कि लोग अन्दाज़ जाने लगा क्या लिए 
छुपाना तो चाहा था मैंने मुहब्बत मगर 
ईश्क़ के उसूल ही ऐसे,ख़ता क्या किये ।

खुश रहे तूं सदा दुआ ये मांगा ख़ुदा से 
हँसी होठों पे रहे सदा ऐसी ही अदा से 
जैसे ख़ुश्बू निभाये साथ गुलों का सदा 
वैसे रहे हाथ तेरा भी मेरे हाथों में सदा ।

महफ़िलों में भी बैठकर मैं अन्दाज़ ली 
कितनी बिन तेरे अधूरी मैं अहसास ली 
लाखों की भीड़ में भी लगे अकेली हूँ मैं 
चले आओ फिर ज़िन्दगी हो बिंदास सी ।

न जाने मेरी आँखों को क्या हो गया है 
कि आईना निहारूँ आये तूं ही तूं नज़र 
चढ़ा कैसा ख़ुमार मुझपर तेरे प्यार का 
पांव रखती कहीं हूँ पड़ते कहीं हैं मगर ।

छिपा रखा जो दिल में कह दो वो राज 
चैन चुराने रातों में मत आया करो याद
बता सीखा कहाँ से तूने करतब ये फ़न 
बेचैन कर ख़्वाब में ना किया करो बात । 

बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें 
तस्वीर लेके तेरी हाथों में करती हूँ बातें 
भींगती आँसुओं की बारिश में निशदिन 
अरे कहीं देर ना हो जाये तेरे आते-आते ।

शैल सिंह 



शनिवार, 10 दिसंबर 2022

'जीवन राग'

         जीवन राग 

ना जाने किस बला की नज़र लग गई है 
कि मस्ती भरा  आलम कहीं  खो गया है 
किलकारियों को भी  ग्रहण लग  गया है
आकर्षण  भी ना जाने कहाँ  सो  गया है।   

जहाँ बेला,जूही,चम्पा सुवासती थी चमेली
वही हो गई है मरुभूमि सी मन की हवेली 
प्रेम राग रूठ गया अन्तर्मन के घोंसलों से  
कंटीली कंछियाँ फूटीं हृदय के अंचलों से। 

चिंताओं,तनावों की घेरि आई कारी बदरी
प्रेम की धरा पर रेगिस्तान जैसी रेत पसरी 
अरमान सूखा,सूख गयीं रसपगी भावनाएं  
वक्त के परों पर उड़ विलीन होतीं करुनाएं। 

जरुरत है जीवन में फिर से राग रंग भरना 
उर की स्वच्छ वेदी पे विकार आहूत करना 
आन्तरिक सफाई कर के पौधे संस्कार की 
सुन्दर पुष्प खिल सकें रोपें सूखी संसार की।

बड़े-बड़े मॉल, शहर, कालोनी चौड़ी सड़कें
दब जाये ना मानवता इस मोह में सिमट के
प्रगति की हूँ पक्षधर  विस्तारों का उद्देश्य भी 
सीमित यन्त्र में न खो जाये कहीं मूल ध्येय ही ।

मंहगे मोटरकार,बंगले चिन्ताग्रस्त इंसान क्यों
सुविधाएँ,साधन सम्पूर्ण फिर मन अशांत क्यों 
भवनों में रहने वाले क्यूँ रूग्ण खिन्न आजकल
हँसता,मुस्काता दिखता क्यूँ न कोई आजकल ।

नींद भी नसीब नहीं गुदगुदे बिछे बिस्तरों पर
नींद की खा-खा  गोलियां सो रहा इन्सान हर
महल भौतिक  संसाधन सड़कें  क्या बनाकर
कि पीछे छूट जाये मानवता ऐसे विकास कर ।

बाजारवाद,भौतिकवाद बस अर्थ की प्रधानता
संवेदनशून्य हो गए हम इन्द्रजाल में संलिप्तता
कैसी ये विडम्बना देखो जप,तप,ज्ञान,मान,दान
मृगमरीचिका सी तृष्णा में भूले हैं सब उपादान ।

गाँव,देश,प्रान्त का उत्थान हो,हो मन में भावना
सपनों की शैया पर मृदुल अरमान ऐसे पालना
हो अंतःकरण स्वस्थ, हो अभ्युदय का पदार्पण
तभी होंगे आनंदित हम ले सुख का रसास्वादन ।
                 
                                                     शैल सिंह  

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों

उत्तराखंड की त्रासदी पर
ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों


अरे मेघ जलवृष्टि चाहा था प्रचण्ड जल प्रलय का ऐसा हाहाकार नहीं
सूखी बंजर धरती में अंकुर फूटे धन,जन क्षति का ऐसा चित्कार नहीं।

प्राकृतिक छटा के मोहपाश ने लील लिए बेकसूर जीवन जाने कितने
तेरी क्रूरता पार की आंकड़ा तड़प बता सिहर उठते,जीवित हैं जितने।

देवभूमि दरश की भूखी आँखों का यम से यह कैसा साक्षात्कार हुआ
कुछ काल के गाल में गए समा कुछ को भष्मासुर का क्रूर दीदार हुआ।

कैसे जज़्ब करें अपनों के खोने का ग़म वादी ने आत्मसात किये हैं जो
रूह कंपाने वाली अलकनंदा,मंदाकिनी ने बर्बर वहशियात किए हैं जो।

भगीरथ तेरी उद्दंड भयावह क्रीड़ा जो विस्फारित दृगों ने देखा अचंभित
अथाह छलकाया था जल का सागर फिर भी प्यासा तरसा तन कम्पित।

जाने किस कन्दरा दुबक गए देव असहाय ,बेसहारा कर श्रद्धालुओं को
उत्पात हुआ केदारनाथ के गढ़ में जिंदगी की हवाले मिटटी बालूओं को।

आस्था का ये कैसा इतिहास रचा अपने अस्तित्व के होने या ना होने का
अंधभक्ति का ये क्या सिला दिया अद्दभूत शक्ति के होने या ना होने का।

भ्रम के भंवर में खा रही हिचकोले अब तो अति विश्वास की नैया जग की
जलाभिषेक,उपवास,अर्चना करें नैवेद्य अर्पित,शीश नवायें किस पग की।

अगर प्रकृति से खिलवाड़ हुआ तो प्रकृति ने भी जघन्य उपहास किया है
ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों,शरणागतों से बेरुखा परिहास किया है।
 
                                                                                    शैल सिंह  

ये वादियां,फिजायें दे रहीं आमन्त्रण

ये वादियां,फ़िज़ाएं दे रहीं आमन्त्रण 

कुर्ग, कोडईकनाल, मुन्नार, लोनावाला
अवकाश का आनंद लेने चलें खंडाला ,

कहीं बीत ना जाये गरमी की छुट्टियां
उधेड़बुन में खुल ना जाये झट स्कूल
अनदेखा,अविगत अनुभव करने का
फिर कचोटता रह ना जाये चित शूल ,

वन की विलक्षण वनस्पतियां देखने
अनुपम उद्यान,रंग-विरंगे उपवन का
ये वादियां,फिजायें दे रहीं आमन्त्रण
लुत्फ़ उठाने को निरूपम मौसम का ,

पर्यटन के अनेक रूपों का रोमांचक
एहसास कराने विलक्षण जहान का
कल-कल बहते झरने पहाड़ बीच से
साक्षात् दृश्य डूबते हुए अंशुमान का ,

सावन की बरसती रिम-झिम फुहारें
उस पर अप्रतिम सौन्दर्य प्रकृति का
भीनी-भीनी ख़ुश्बू सुहाये पावस की
ठंडी हवा के झोंके नैसर्गिक सुंदरता ,

हरी-भरी खूबसूरत लगती पहाड़ियां
झरनों के चतुर्दिक चादर बादल का
कण-कण स्वागत  करती मुग्ध धरा
मानसून के जीवन्त सुरभित रंग का ,

प्राकृतिक सुवास से प्राण प्रस्फुटित
पेड़-पत्ते,जीव-जन्तु ,नदी,पोखर का
छटा मनोहर भाये सुंदर गोधूलि की
शांत,एकांत सदाबहार गिरि दल का ,

प्रकृति का बेजोड़ उपहार समेटे पर्वत 
अलौकिक अनुभूति,मोहक रमणीयता
अनगिनत अनोखा दर्शनीय स्थल यहाँ
बर्फीला रेगिस्तान औ मरुस्थल दिखता ,

अनदेखे कोनों की आओ याद सहेजने
शहरों की हलचल से बिल्कुल अलहदा
जिस सैर से सैलानी दिल हो बाग़-बाग़
आओ देखो मस्त चाँद नीले अम्बर का ,

मदहोशी का आलम फैला दूर-दूर तक
कुनकुनाती धूप चहकती आबोहवा का
आह्लादित मखमली,अनछुई ये वादियां
कौतूहल से चारू श्रृंखला नीलगिरि का ।

अविगत---अनजाना
मंजुल--सुन्दर , चारू--सुन्दर ,
                                              शैल सिंह



रविवार, 30 अक्टूबर 2022

तन्हाई ने सीखा दिया जीने का गुर

        तन्हाई ने सीखा दिया जीने का गुर 


कभी शरच्चन्द्रिका सी विहँस अद्भुत जगत के दरश करा देती 
कभी झटक परिहास कर धूसर विश्व में छोड़ चली जाती तन्हाई
कभी यादों,सोचों का साम्राज्य खड़ा कर गहन सन्नाटा देती चीर
कभी मन के निर्मम,बोझल तम को आलोक दिखा जाती तन्हाई  ,

कभी अन्तर कर देती क्लेशित,कभी नाभाष प्रफुल्लता भर देती
कभी निराशा के अंचल हर्षातिरेक से आस की पूर्णिमा भर देती
कभी तन्हाई के नैराश्य जमीं पर सुख-दुःख के सरसिज बो देती
कभी जीने की राह सुझा जाती कभी झट धीरज संचित खो देती ,

कभी विलास की रानी बनकर मृत स्पन्दन में किसलय भर देती
कभी अलौकिक,अद्भुत लोक में पहुँचा मन मतवाला कर देती
कभी नयनों में खारा सागर कभी अविच्छिन्न उत्साह से भर देती
कभी एकाकी जीवन उपवन,शीतल पवन बन सुरभित कर देती ,

कभी हताश,निराशा,विषाद,अवसाद की ऊसरता मिटला जाती
कभी जीवन सरिता का उद्गम बन,मरुमय वक्ष उर्वरा बना जाती
कभी बाल सहचरी बन तन्हाई ,तन्हाई की नीरवता सहला जाती
कभी ख़ुशी का अलख जगाती कभी ज्वाला बन गात जला जाती ,

कभी तो कुत्सित भाव जगाती कभी कोलाहल मन का पढ़ लेती
कभी बैठ पखौटे पे कल्पनाओं के कविता की कड़ियाँ गढ़ देती
कभी समर्पित हो अभिव्यक्तियां प्रखर चुपचाप सृजित कर देती,
कभी चुन-चुनकर स्वतंत्र भाव हृदय में,क्लान्त कवि के भर देती

कभी ये निर्वाक् अविचल भाव से कई सुख के आयाम जुटा देती
कभी ख़ामोश सिमट सीने में,उमग मधुऋतु की आस लगा लेती
कभी उफ़नाती मसि बन उत्साहित,अनंत शब्द भंडार जुहा देती
कभी आश्रय बन मन के व्याकुलता की अरुण ध्वजा फहरा देती ,

जीवन की गोधूलि बेला का पतझड़,सभी उन्मत्त बहारें लौट गईं
कुछ दिन सुख के घन छलका सुख की अब सारी चंचल रैन गईं
अब नहीं नया कुछ होने वाला अपने सब साथ छोड़कर चले गए
बहुत विदारक चिर शान्ति व्यथा की दाह पास छोड़कर चले गए ,

तन्हाई का प्राँगण,भावों,कल्पनाओं,स्मृतियों के खिलते पुष्प यहाँ
निर्जन एकांतवास को बना देती सुहागन श्रृंगार सजाती मौन यहाँ,
उम्र के सूने छरीले तट का सुनसान किनारा,सौन्दर्य निहारे कौन
पीर अपरिमित ममता की,वात्सल्य की,फिर आलिंगन धारे कौन । 

                                                                               शैल सिंह


शनिवार, 29 अक्टूबर 2022

'' तुम हाँ तुम ''

                तुम हाँ तुम 

कितनी बार घटा बन उमड़-घुमड़ बरसी मेरी घनीभूत पीड़ा
काश कभी पोंछ दिए होते तुम स्नेह में बोर-बोर ख़ुद पोरों से ,

जो अभिव्यक्ति पिरो गीतों,छंदों में अलापी थी मेरी मन वीणा
काश कभी व्यथित हुए होते सुन दर्द भरे आरोह-अवरोहों से

उर के अतल समंदर ना जाने कितने थे बेशकीमती रत्न छिपे
काश कभी पैठ खोज लिए होते तुम अंतर्मन के गोताखोरों से

कलमवद्ध कर कविता में उर के अनमोल मोती थे पिरो दिए
काश कभी मन से पढ़ तुम भींग गये होते दर्द भरे कुहोरों से 

उर्वशी,रम्भा अप्सराओं सी कहाँ तुझे मेरी देह से नशा मिली
काश योगी का तप भंग करने के होते मुझमें ढंग छिछोरों से। 



                                                               शैल सिंह 

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...