बुधवार, 27 अक्टूबर 2021

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह

गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह


झूठी मुस्कुराहटों के सूखे होंठों पे दर्द
लफ़्ज़ बन उसे कर देंगे बज़्म में बेपर्द ।

पीये होती ग़र शराब हो जाता वबाल
इसलिये पी लिया समन्दर आँखों का
यदि होता हक़ीक़त सब पूछते सवाल
इसलिये छुपा लिया बवंडर आँखों का ।

किसे परवाह इन मासूम आँसुओं की  
तैरे बेबसी की  किश्ती सब्र आँख का
रहके पलकों की हद में,लब रख हँसी
करता रहता ख़ुदकुशी अब्र आँख का ।

ख़ुदा जानता है मेरे दिल में बात क्या
वो होता बेनक़ाब कह देती बात क्या
मुझको नहीं देना हर बात का जवाब
ख़ामोशी बता देगी  दिल में बात क्या ।

ज़िन्दगी की भी कैसी हाय ये बेचारगी  
रोने को विवश, ज़ब्त करने में लाचार 
गूँगे कतरों में डूबे रहे दरिया की तरह
भीतर की तबाही के सह के अत्याचार ।

अनायास खर्च किया मैंने आँसू हज़ार 
बेवफ़ाई के मंडी में हुई वफ़ा शर्मसार
चुपचाप बिखर जाऊँ या करुँ बयां दर्द
या काटूँ सज़ा उम्मीद की करुं इंतज़ार ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह आँख

सोमवार, 25 अक्टूबर 2021

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता '' हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक ''

सुशांत सिंह राजपूत पर कविता 
हम सबके दिलों में रहोगे जिंदा मरते दम तक 


होता नहीं यक़ीं कि तुम इस जहाँ में अब नहीं
अश्क़ बहें तेरे याद में आँखें किसकी नम नहीं
मुक़र गई नींद नैयनों से बिलखते गुजरती रात
तुम अब लोक में नहीं कैसे दिलाएं यह विश्वास  ,

तस्वीर तेरी जब कहीं दिखाई देतीं आँखों को
छलक उठते हठात् आँसू भींगो देते गालों को   
जैसे ऋतु बरसात की आँखें रहतीं हरदम नम   
क्यों मौत को लगा गले दिये इतने तुम ज़ख़म ,

अच्छा हुआ दिन शोक का देखने से पहले माँ 
परलोक गईं सिधार वरना देखतीं यह हाल ना  
न जाने बीतती क्या माता पर कैसा होता मंज़र
असह्य वेदना सोच नयन में उतर आता समंदर ,

क्या होगा हाल पापा का इक बार भी न सोचा  
थे इकलौते भाई बहनों के इक बार ये न सोचा 
कैसी वेदना थी मन में ऊफ़ मथते रहे ख़ुद को 
कष्ट यही,लेते व्यथा बांट दंड देते नहीं ख़ुद को ,

मातम अरमां का मना मृत्यु का ख़याल छोड़ते
किसका डर,भय किस बात का मलाल बोलते
कचोटता है हृदय सहा अपार दर्द क्यों अकेले 
कोई हमदर्द काश समझा होता मर्म कैसे झेले ,

हम सबके दिल में जिंदा रहोगे मरते दम तक
कहाँ ढूँढें तुझको दिए नहीं पता तुम अब तक
दीप सभी तेरे नाम का जलाए  रखेंगे तब तक
इन्साफ़ तेरी मौत का दिला देंगे नहीं जब तक ,

अरे मौत के सौदागरों सुन लो कान खोलकर 
करना गुनाह कुबूल या जाना जहान छोड़कर
हम सबने ठान लिया तुम सब को नंगा करना  
सड़कों पे उतर करेंगे हम प्रदर्शन दंगा धरना ।


सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

बुधवार, 20 अक्टूबर 2021

“ हम हैं विश्वगुरु “

भारत फिर से विश्व के मानस पटल पर एक अलग पहचान बना रहा है ।                           

                            ' हम हैं विश्व गुरु '

    हो चाँद हमारी मुट्ठी में हमें करना सूरज भी बस में 
    उत्तुंग शिखर से सागर तक हम चमकें सारे जग में ।

शांति,अमन के हम प्रहरी तुझे पाक उत्पात मचाना आता 
जब ख़ुश्बू होगी आम हमारी करनी पर होगा तूं पछताता ।

हम बेजा वक़्त नहीें गंवाते तुझ सा असभ्य हरकतें कर के 
करना मुकाबला तो आओ ना पथ विकास के चल कर के ।  

भगवान हमारे मस्जिद में रमते ख़ुदा रहता मन्दिर में तेरा
हम सुनें अज़ान मस्जिद की सुने तूं स्त्रोत मन्दिर का मेरा ।

हम मलयज सा महक फ़िज़ा में बिखरा रहे दिन-प्रतिदिन 
ग़र देते लोबान का तुम सोंधापन आकंठ लगाते निशदिन ।

चाँद पर होगा घर अपना करेगा सूरज भी मेहमाननवाजी 
बिछाओ चौपड़ की कोई भी बिसात हम जीतेंगे हर बाजी ।

जल,वायु,अवनि,अंबर अपना सपना हमसे ही ज़माना हो 
हम नहीं ज़माने से अभिलााषा जग हम पर ही दीवाना हो ।

हमसे रौशन शफ़क़,हमारे केतन को नस्तक विश्व करेगा 
जो साख ढहाया हिंद के गौरव की जल आके यहाँ भरेगा ।

हम विश्व पटल पर उभर रहे हैं नव युग की लाली बनकर 
तरल,विनम्र हैं मगर डटे वलिष्ठ,साहसी,बलशाली बनकर ।

काल चक्र कृपालु हमपर विश्व का प्रतिनिधित्व हमीं करेंगे 
नित उत्थान के डगर अग्रसर दुनिया का नेतृत्व हमीं बनेंगे ।

हमें विश्व से करना मुकाबला सबसे आगे होंगे हिन्दुस्तानी
जहान से लोहा मनवाना नहीं है जग में हम सा कोई सानी ।

पार्श्व में तारे अम्बर के झण्डा शान से अन्तरिक्ष लहराएगा
ताज विश्वगुरू का शीर्ष हमारे जग जय भारत जय गायेगा ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

सोमवार, 18 अक्टूबर 2021

लॉकडाउन की तन्हाई पर कविता

गुमसुम सी है सुबह,सुनसान शाम आजकल 
ख़बरदार मेरी तन्हाई में न डाले कोई ख़लल ।

करीब मेरे बेहिसाब ख़यालों के आशियाने हैं 
दिल के बन्द कक्षों में कई यादों के ख़ज़ाने हैं
इसीलिए तन्हाईयां मुझे तनहा होने नहीं देतीं
जगाकर रखतीं रात भर कभी सोने नहीं देतीं ।

मुझे भी हो गई अकेलेपन से मुहब्बत इतनी
भाईं नहीं किसी की भी नजदीकियां जितनी
ख़ुशी ना उदासी बैठे हैं ख़ामोश सुबहो-शाम
लगने लगीं सुखदायिनी भी तन्हाईयां कितनी ।

फिर पुराने मौसम आ गये लौट के तन्हाई में 
अपनों से बिछड़ना दर्द,ग़म जख़म जुदाई में
जो बीता,गुजरा लिखा मन बहला लिया मैंने
और तन्हाई में तन्हा ही जश्न मना लिया मैंने ।

विरां वक़्त मग़र हैं बिचरते माज़ी के कारवां 
मुद्दतों बाद भी महसूती आज भी वही समां
अतीत के सुरंगों में संजो रखी जो असबाब
मेरी तन्हाईयां उनसे ही गुलजार औ आबाद ।


असबाब--सामान,वस्तु
सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह



रविवार, 17 अक्टूबर 2021

" बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें "

वो जो आए तो आई चमन में बहार
सुप्त कलियाँ भी अंगड़ाई लेने लगीं
चूस मकरंद गुलों के मस्त भ्रमरे हुए
कूक कोयल की अमराई गूंजने लगीं ।

फिर हृदय में अभिप्सा उमगने लगीं
नयन में चित्र फिर संजीवित हो उठे          
मृदु स्पन्दन अंग की उन्मुक्त सिहरनें 
पा आलिंगन पुन: पुनर्जीवित हो उठे ।

स्वप्न पलकों के आज इन्द्रधनुषी हुए
निशा नवगीत सप्तस्वर में गाने लगी
हृदय के द्वारे मज़मा आह्लाद के लगे
चाँदनी और शोख़ हो मुस्कराने लगीं ।

अधर प्यासे वो सींचे अधर सोम से 
मन के अंगनाई शहनाई बजने लगी
बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें
भोर की तत्क्षण अरुणाई उगने लगी ।

फिर से बेनूर ज़िन्दगी महकने लगी 
जब से ख़ुश्बू उनकी घुली साथ है
हरसू लगने लगीं अब तन्हाईयाँ भी
उर घुला मधुर मखमली एहसास है

फासले हुए ऐसे नदारद ज़िन्दगी से 
खुशनुमा-खुशनुमा हर पल आज है
जब से आए हैं वो वीरां ज़िन्दगी में
तब से सारा शहर लगता आबाद है,

भयभीत होती नहीं हो घनेरा तिमिर
चाँद सा हसीं महबूब का अन्दाज़ है
उनसे रूठना भी अब ना गवारा लगे 
बाद अरसे के सुर को मिला साज है । 

हर आहट पर उर के ऐसे हालात हैं
लगे उर्वी से मिलने उतरा आकाश है
मेरी आकुलता को अब तो विराम दो
चौखट थामें खड़ी आतुर भुजपाश हैं ।

अभिप्सा--प्रबल इच्छा, गात--देह

गुरुवार, 15 जुलाई 2021

इन्तज़ार और याद पर कविता " आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "

" आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "


सूरज की तप्ती दोपहरी चाँदनी सी शीतल रात 
बीतीं जाने कितनी भोर संध्याएँ बीते कित मास ।

अब तो हो गई है इंतिहा आँखों के इन्तज़ार की
लगता बिना तेरे मैंने कितनी शताब्दी गुजार दी
हर साँझ जला रखते दृग,पथ उम्मीदों का दीया
बुझा अश्क़ों की वर्षात से मिज़ाज को क़रार दी ।

निश-दिन भींगती तेरी यादों में बरसात की तरह
वह कशिश कहाँ बरसात में तेरी यादों की तरह 
यादें भी क्या बला  रखतीं बैर आँखों की नींद से
तोड़ देतीं दिला यादें निर्दयी यादों को उम्मीद से ।

मुहब्बत में बिछड़ने का ग़म बस मुझे होता क्यूँ
दर्द अनुभूतियों का मुझ सा नहीं तुझे होता क्यूँ
जैसे बिताती बेचैन रातें बिन तेरे तन्हाईयों में मैं
वैसी ही बेचैनी का अहसास नहीं तुझे होता क्यूँ ।

कभी बोये थे मेरी आँखों में तुम्हीं ख़्वाब सुनहरे
कभी मंडराए थे भ्रमरे सा कैसे भूले साँझ सवेरे 
अपने ज़ुल्फ़ के पेंचों में कर गिरफ़्तार बाज़ीगर
कैसे किया देख हाल आके डाल आँखों में बसेरे ।

कभी बन पवन का झोंका  खेल जाते गेसुओं से  
कभी कर जाते पलकें नम बरस नैन के मेघों से 
जाने किस भरम में रखी संजो यादों की सम्पदा
बिसराने का करूं यत्न  रूठ दिल नहीं धड़कता ।

क़ाश तेरे फ़ितरत सी होतीं यादें भी तेरी बेवफ़ा
आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा
दिल के चौखट न जाने क्यूं लगा न पाती बंदिशें
कभी आओगे इसी आस में खोल रखी दरवाजा ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                   शैल सिंह

शनिवार, 19 जून 2021

कविता " यादें बचपन की "

                   " यादें बचपन की "


अभी तक है घुली नथुनों में सोंधी ख़ुश्बू गांव की   
याद छत पे सोना कथरी बिछा धूल भरे पांव की ।

बारिशों में भींगी मस्ती क़श्ती कागज की बहाना 
गर्मियों की चाँदनी रातें बिछी खाटें खुला आँगना
शरारतें,नदानियां,रुठना,मनाना खिल्ली ठिठोली
याद बालेपन का घरौंदा साथ सखियों का सुहाना ।

खांटी दूध,दही,छाछ,अहरे की दाल चोखा भउरी
ज़ायके घुघुनी रस के रसदार तरकारी में अदउरी
लुत्फ़ खीरा ककड़ी का मकई के खेतों का मचान 
भूली नहीं मेलों की चोटही जलेबी,लक्ठा,फुलउरी ।

कारे मेघा पानी दे घटा से बरस जाने की मनुहार 
माटी में लोट कहना,साथियों के संग की तकरार 
आलाप आल्हा-ऊदल का रासलीला,मदारी खेल
कहाँ गईं वो चीजें  बाइस्कोप,नौटंकी की झन्कार ।

दूसरों के बाग़ों से टिकोरा तोड़ना भरी दुपहरी में 
झगड़े कुट्टी,मिट्ठी करना उंगलियों की कचहरी में
अब क्यों बचपन जैसी सुबह और शाम नहीं होती
मस्ती,हुड़दंग,होंठों पर अल्हड़ मुस्कान नहीं होती ।

हमजोली संग मिल गुड्डे-गुड़ियों का व्याह रचाना
आँखों में जीवन्त है आज भी बचपन  का जमाना
चिंता ना फिकर रंज ,द्वेष कितने न्यारे थे वो दिन 
लौटा दे कोई बचपन दे-दे वो सामान सब पुराना ।

अहरे--उपले और गोहरे की आग 
अदउरी--बड़ी,कोहड़उरी
सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...