रविवार, 17 अक्टूबर 2021

" बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें "

वो जो आए तो आई चमन में बहार
सुप्त कलियाँ भी अंगड़ाई लेने लगीं
चूस मकरंद गुलों के मस्त भ्रमरे हुए
कूक कोयल की अमराई गूंजने लगीं ।

फिर हृदय में अभिप्सा उमगने लगीं
नयन में चित्र फिर संजीवित हो उठे          
मृदु स्पन्दन अंग की उन्मुक्त सिहरनें 
पा आलिंगन पुन: पुनर्जीवित हो उठे ।

स्वप्न पलकों के आज इन्द्रधनुषी हुए
निशा नवगीत सप्तस्वर में गाने लगी
हृदय के द्वारे मज़मा आह्लाद के लगे
चाँदनी और शोख़ हो मुस्कराने लगीं ।

अधर प्यासे वो सींचे अधर सोम से 
मन के अंगनाई शहनाई बजने लगी
बस चितवन से पलभर निहारा उन्हें
भोर की तत्क्षण अरुणाई उगने लगी ।

फिर से बेनूर ज़िन्दगी महकने लगी 
जब से ख़ुश्बू उनकी घुली साथ है
हरसू लगने लगीं अब तन्हाईयाँ भी
उर घुला मधुर मखमली एहसास है

फासले हुए ऐसे नदारद ज़िन्दगी से 
खुशनुमा-खुशनुमा हर पल आज है
जब से आए हैं वो वीरां ज़िन्दगी में
तब से सारा शहर लगता आबाद है,

भयभीत होती नहीं हो घनेरा तिमिर
चाँद सा हसीं महबूब का अन्दाज़ है
उनसे रूठना भी अब ना गवारा लगे 
बाद अरसे के सुर को मिला साज है । 

हर आहट पर उर के ऐसे हालात हैं
लगे उर्वी से मिलने उतरा आकाश है
मेरी आकुलता को अब तो विराम दो
चौखट थामें खड़ी आतुर भुजपाश हैं ।

अभिप्सा--प्रबल इच्छा, गात--देह

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