ये नभचर,दरख़्त हमारे जीवन के अंग हैं
आती नहीं रास इन्हें भी शहर की हवा
बदल से गये हैं शहरों के रंग और रूवाब
जहाँ छांह सुकूं की ना भली सुबह की फ़ज़ा ।
पलायन को मजबूर हुए हैं बेसहारे
आशियाने की खोज में भटकते बेचारे
बेजुबान रंग-बिरंगे ये पखेरू आस्मान के
करें कहाँ रैन बसेरा हुए बाग़ बियावान सारे ।
चुन-चुन तिनका चोंचों में दबा कर
बड़े युक्ति से मनोहर घोंसले बनाकर
धूप,आँधी,बारिश से बचा कुटुम्ब बसातीं
ला चुग-चुग दाने नेह से कुनबों को खिलातीं ।
कटते जा रहे बाग़,अभयारण्य सारे
विहगों का दर्द क्या,नहीं इन्सान जाने
जाने कहाँ गया तनकर खड़ा बूढ़ा तरूवर
बैठ जिसकी टहनियों पर खग करते कलरव ।
बड़ी ही व्यथित पंछियों की कथा है
गुलशन का दर्द कहीं उससे भी बड़ा है
ये नभचर,दरख़्त हमारे जीवन के अंग हैं
इनके बिन ख़लक़ में रहना सब कुछ बेरंग है ।
ख़लक़-----संसार
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