रविवार, 21 अगस्त 2022

'' ग़ज़ल '' '' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा ''

'' ग़ज़ल ''

'' लौटा सको अगर तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा ''


तरस जायेंगे बन्द दरवाजे तेरे
कभी दर पे आ तेरे दस्तक ना दूँगी
मेरे अहसानों का मोल चुकायेगा क्या तूं
तजुर्बों को अब कभी अपने ना शिक़स्त दूँगी
अगर लौटा सको तो लौटा दो वो हसीं वक्त मेरा
जो लूट गया नाजायज़ किसी को वो हर्गिज़ ना दूंगी।

लगी देर ना तेरी फ़ितरत बदलते 
इल्म था ये मगर मैंने वफ़ादारी निभाई
चोट खाया है दिल मिला वफ़ा का सिला ये
जख़्म होता वदन पर तो देता दहर को दिखाई
वक़्त का पहिया भी बदलेगा करवट देखना कभी
कैसे किसी को इल्जाम दूँ जब ख़ुद को ही ठग आई।

मेरी खामोशियाँ भी मुझे कोसती हैं
ये दर्द की ही इन्तेहा कि बयां कर सकूँ ना
छींटे किरदार पर भी कत्तई नहीं बर्दाश्त होंगे
संग हवाओं के भी चलने का हुनर ला सकूँ ना
शख़्सियत नीलाम मेरी क्यों फ़रेबों के बाज़ार में
कि नफ़रत भी बेवफ़ाओं से मुकम्मल कर सकूँ ना।

                                             शैल सिंह 

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