मंगलवार, 11 अक्तूबर 2022

अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं

अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं

रात गहगह चाँदनी में नहाई हुई है
झिलमिल सितारे जगमगा रहे हैं
नाग़वार दिल को लगे ये नज़ारा
अनवार दिल पे सितम ढा रहे हैं।

नज़रों की खुराफ़ात ख़ता दिल से हो गई
सदमा गहरा दिल पर जुदा तुमसे हो गई
कौन हूँ मैं तेरी क्या वाबस्ता तुझसे मेरा
हुई वफ़ा संग बेवफ़ाई ख़फ़ा तुझसे हो गई ,

झांकते हैं रोज पलकों की बन्द झिर्रियों से
अबस यादों के गुस्ताख़ वो गुजरे ज़माने
यादों के पाँखी मन क़फ़स में फड़फड़ाते 
रक़्स करते हैं और जख़्म जवां हो पुराने ,

ये जलवे फिज़ा के ये शब की गहनाई
मंज़र वही पर रौनक़े-महफ़िल नहीं है
हँसीं ग़ुंचे वही सबा पेशे गुलशन वही है
मगर जलवा-ए-नुरेज-अज़ल वो नहीं है ,

आहिस्ता-आहिस्ता ये रात ढल रही है
रुख पे नकाब डाले चाँद छिप रहा है
आसमां के जुगनू सितारे सो गए सब
दिल बहलाने के  सहारे खो गए सब ,

शेर --

गुजरे किस दौर से हैं फिर भी मुस्कराये
तख़लीफ़ कर हम खुद-बख़ुद गुनगुनाये
तंज कसते मजरूह दिल पे अहवाब सारे
सरमाया ज़ख्मों का रखा दिल से लगाये ।

                                  
मजरूह--घायल , 
अहवाब--मित्र 

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