" कपोल गुलाबी करवा गोरी हुई और छबीली "
मन के धुलें मलाल,अबीर गुलाल से प्यार में
मुबारक सबको होली,भींगें रंगों के फुहार में ।
साँसों में घुला चंदन मौसम हो गया गुलज़ार
दिल हुआ बावरा मिश्री घोले प्राणों में पूरवा
मधुऋतु का उल्लास लगे खिली-खिली दुर्वा ।
कुसुमित हो गईं कलियां महक उठा उपवन
रूनझुन बाजी पायल पाँवों में उठा थिरकन
पत्रविहीन टहनियों पर फूटी फिर से कोंपल
बरस वसंती वर्षा भींगा गई धरा का आँचल ।
हुरियारे हुड़दंग मचाकर पनघट चौपालों पर
थिरकें गागा फगुआ,ढोल,मृदंग के थापों पर
यौवन से गदराये वृक्ष,मंजर सुगंध बिखराया
शोख़ हुईं कलियों पर भ्रमरा उन्मत्त मंडराया ।
कुंकुम,केसर सजा थाल,ऋतुराज पाहुन का
पपीहे,कोयल करें चहक सत्कार फागुन का
इन्द्रधनुषी हुआ अनन्त,छटा बिखरी रंगों की
झूमकर आई होली,चूनर भींगो गई अंगों की ।
प्रकृति की छवि न्यारी साफ-स्वच्छ आकाश
करें विहार विहंग व्योम में उर में भर उल्लास
प्रकृति कर आबन्ध फागुन से,दी ढेरों सौगात
सुर्ख रंगो में चरम पे यौवन टहकें टेसू पलाश ।
बौराया हर नटखट मन,मस्ती भरे त्यौहार में
बदला मिज़ाज बूढ़वों का होली के ख़ुमार में
कपोल गुलाबी करवा गोरी और हुई छबीली
कवियों की कविताएं भी करने लगीं ठिठोली ।
दुर्वा--दूब
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
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