" ढलती ज़िन्दगी पर कविता "
थोड़ी मोहलत मिली थोड़ी फ़ुर्सत मिली
तो मिला तोहफ़े में तन्हाई और अपनों का बिछुड़न
गाड़ी बंगला मिला शोहरत ऐश्वर्य,मिला
तो ढलते वय में मिला पदार्थ सब,टिसता चुभन
ज़िन्दगी तेरी आवश्यकताओं के वसन्त बीत जाने के बाद ,
सोचती हूँ जी लूँ जी भर कर तुझे
अधूरी ख़्वाहिशें खरीद लूँ झोली भर के
कभी सपने नयन में जो अंगड़ाई लिये थे
सोचती हूँ कर लूँ उपलब्ध उन्हें साकार कर के
मगर तुझसे शिकवा आज यही ज़िंदगी
कोई आह्लाद नहीं गुजरे कल की अनुभूति सी
मधुर ज़िन्दगी का बेशक़ीमती वसन्त बीत जाने के बाद ,
कुछ मर्यादाओं,प्रथाओं का बंधन
कुछ विवशताओं की अपनी कहानी
बेमुरव्वत था वक़्त और किस्मत,सम्बन्धी भी
कुछ लाचार परिस्थितियों में बीती जवानी
बहुत शिकवा है ज़िन्दगी तेरे वर्तमान से
उलाहने प्रचुर,बीत गए कल को मेरे आज से
वर्तमान तूं भी मिला हसरतों का वसन्त बीत जाने के बाद ,
उत्तरदायित्वों के निर्वहन में गया आकर्षण देह का
सुन्दर परिधान,आभूषण अब किस काम के
ना तो यौवन के तरुणाई की चमक औ धमक
ना नैनों में ज्योति ना पैरूख रहे अब किसी धाम के
व्यस्त संतानें ख़ुद के व्यवसाय में,सब बिछड़े स्वजन
अशक्त हुए पाचन,दसन भी सब सुखभोग निष्काम के
सब कुछ मिला ज़िन्दगी तेरे शौकों के वसन्त बीत जाने के बाद।
दसन--दाँत
शैल सिंह
ढलती उम्र की हकीकत को बयान करती रचना ने मन भिगो दिया शैल जी। कभी कभी मैं भी सोचती हूं और बूढ़ी मां और सास ससुर जी को देखती हूं, तो ढलता उम्र की व्यथा समझ में आती है। न पहनने और ओढ़ने का सुख न मनपसंद काम करने का उत्साह, यही है ढलती उम्र की आम सच्चाई। पर कई लोग आखिरी सांस तक भी सक्रिय रह बड़ी जिंदादिली से जीते हैं।
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