बारिश पर कविता
सावन आकुल है जल आचमन के लिए
ओढ़ लो ना श्वेत अम्बर घटा की चूनर
वसुधा प्यासी है दो बूंद जल के लिए
उमड़-घुमड़ मेघ करते तुम आवारगी
उमड़-घुमड़ मेघ करते तुम आवारगी
क्यों छलकते नहीं एक पल के लिए ।
नभ निहारता है चातक बड़ी आस से
तृषा से उदासी कोकिल का कण्ठ है
जलचर तड़फड़ा रहे सूखे ताल,तरनी
सुस्त नृत्यांगना शिखावल का पंख है ।
कहाँ गड़-गड़ गरज कर चले जाते हो
छल जाये कड़कती-चमकती दामिनी
कभी होता ग़र आसार श्याम मेघ का
मन को हर धार लेते वसन आसमानी ।
आज फिर आई याद बचपन की घड़ी
वही कागज़ की डोंगी ले आँगन खड़ी
किस विरह में तुम तल्लीन घन बैरागी
किस विरह में तुम तल्लीन घन बैरागी
वेदना तो बताते बरसा नयन की झड़ी ।
धरती सिंगार करने को उतावली बहुत
आतुर क्यारी में अन्न अंकुरित होने को
मेघ बिन लगे फीका मल्हार सावन का
कातर मानुष हैं खिन्न प्रमुदित होने को ।
पगली पूरवा बहे तप्त,देह तवा सी तपे
तोड़ दो ना बांध अब्र का सभी मेघ जी
आर्द्र कर दो ना आँचल बरस सृष्टि का
फिर पूछो प्रेम से आप कुशल क्षेम जी ।
कभी ढाते क्रुद्ध हो जलप्रलय से क़हर
कहीं करते हो सूखे के प्रकोप से प्रहार
कहीं दरकाते पृथ्वी कहीं दलदल जमीं
कभी उड़ाते हो मुँहज़ोर सिकता अपार ।
क्या भूले तुम डगर या हो ज़िद पे अड़े
निराश ढूंढें पखेरू सूखे वृक्षों पर शरण
व्यथा सहला ना छलका फुहार नेहकी
कुपित क्यों कोप निर्दोषों पर अकारण
कब नथुनों में घुलेगी मेघ,माटी की गंध
घेर श्यामल घटा करती सैर किस लिए
म्लान आनन हैं प्रेयसी के उद्विग्न नयन
सावन आकुल है जल आचमन के लिए ।
पनघट पनिहारिनें रीती मटकी ले खड़ीं
कहतीं निठुर व्योम से दृग उठा क्षोभ से
उष्णता तो मिटा दे अनुराग भर अंजलि
अनुनय कर रहीं आँचल पसार क्रोध से ।
अनुनय कर रहीं आँचल पसार क्रोध से ।
नख़रे बहुत कर चुके मेह तोड़ो अनशन
बन महा ठग छल गये जेठ,आषाढ़ तुम
रखा खाली कलश मन का सावन में भी
रखा खाली कलश मन का सावन में भी
कितने अनुदार अक्खड़ हो पाषाण तुम ।
शिखावल---मोरनी , सिकता---रेत
शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित ई
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