सोमवार, 4 अगस्त 2014

मेरे गाँव सी

मेरे गाँव सी


जब भी शहर आया कोई गाँव से हमारे
मानो यादों की गठरी लाया बचपन की सारे,

भोर की गुनगुनी धूप साँझ की लालिमा
खिल के परिदृश्य नाच उठते अँखियों के द्वारे ,

मित्रों की मण्डली टीला गाँव के छोर का
उछल-कूद नदी,बाग़,गपना पोखरों के किनारे ,

बेल,झरबेरी,जामुन,ईमली आम का टिकोरा
मछलियों का पकड़ना ओ फंसा कंटियों में चारे ,

थपकी आजी की माँ की झिड़की मीठी-मीठी
बाबूजी का नेह काका बाबा के दुलारों की फुहारें ,

दूध,दही,दाना,रस,मट्ठा,महुवा का ठेकुवा
हाट-बाट,राम लीला,नाटक,मेला गाँव के चौबारे ,

होली का हुड़दंग,दशहरा,दीवाली के पटाखे
बाइस्कोप ,गिल्ली-डंडा,झूला,कंचे तैरते नज़ारे ,

मजूर शलगु दादा,मुंशी धोबी,महजू काका
महरिन काकी का पानी भरना नित साँझ-सकारे ,

यहाँ कब उगता सूरज ढलती है शाम कब
कब नहाती चांदनी में रात जगमगाते कब सितारे ,

कैसे होते पड़ोसी रखते पट बंद खिड़कियां
कहाँ जानते हैं शहर वाले मेरे गाँव जैसे भाई-चारे ,

है शहर की कहाँ सोंधी महक मेरे गाँव सी
फिरती रही भीड़ भरे नगर में भी मायूस मारे-मारे ,

                                                                        शैल सिंह

1 टिप्पणी:

  1. बचपन की कितनी ही चीजें, कितनी ही यादें ... आँखों के सामने से गुज़र गयीं ...

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