ग़ज़ल
ज़ख़्म गहरा दिया है तुमने
मेरे ऐतबार को
सिला कैसा दिया है तुमने
मेरे इन्तज़ार को
ज़ख़्म .......
लब हैं ख़ामोश लहर सीने में
उठा देखा कि नहीं
तूफ़ां का क़हर कश्ती पे
बरपा देखा कि नहीं
सहना देखा सितम का उफ़ां
ज्वार का देखा कि नहीं
सब्र कैसा दिया है तुमने
मेरे इख़्तियार को
ज़ख़्म .........
बेरुख़ी क्यों वजह क्या आख़िर
कुछ तो बता दिया होता
शीशा-ए-दिल टूटने से पहले
खुद को समझा लिया होता
टूटा है भरम तेरा ऐ दिल,रस्क
इतना ना किया होता
किस ख़ता की दी सजा ऐ वफ़ा
दिले बेक़रार को
ज़ख़्म ..........
अंजुमन में ख़्वामख़्वाह आना
तरन्नुम बनकर बेजां
बेवक़्त बज़्म से उठकर जाना
रुसवा किया है बेजां
ग़म है नग़मों से क्यों है छिना
शाम-ए-क़रार बेजां
दिया लम्हा उदास तुमने
ऐसे फ़नकार को
ज़ख़्म ..........
शैल सिंह
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