नाम का तेरे काजल लगाने लगी हूँ
लोग कहते बड़ी खूबसूरत हैं आँखें मेरी
चिलमन और भी अदा से उठाने गिराने लगी हूँ ।
ना मैं जानूं रदीफ़ ,काफिया ना मात्राओं की गणना , पंत, निराला की भाँति ना छंद व्याकरण भाषा बंधना , मकसद बस इक कतार में शुचि सुन्दर भावों को गढ़ना , अंतस के बहुविधि फूल झरे हैं गहराई उद्गारों की पढ़ना । निश्छल ,अविरल ,रसधार बही कल-कल भावों की सरिता , अंतर की छलका दी गागर फिर उमड़ी लहरों सी कविता , प्रतिष्ठित कवियों की कतार में अवतरित ,अपरचित फूल हूँ , साहित्य पथ की सुधि पाठकों अंजानी अनदेखी धूल हूँ । सर्वाधिकार सुरक्षित ''शैल सिंह'' Copyright '' shailsingh ''
ना तो हीरे रतन की मैं खान मांगती हूँ
ना चाँद,तारे,सूरज,आसमान मांगती हूँ
मेरे हिस्से की धूप का बस दे दे किला
जरुरत की जीस्त के सामान मांगती हूँ ।
फाड़कर ना दे छप्पर कि पागल हो जाऊँ
रूठकर ना दे मन का कि घायल हो जाऊँ
अपने दुवाओं की सारी कतरनें बख़्श देना
कि तेरी बंदगी की ख़ुदा मैं क़ायल हो जाऊँ ।
गुज़ारिश है आँखों में वो तदवीर बना देना
मेरी ख़्वाहिशों का मेरे तक़दीर बना देना
टूटकर कोई तारा फ़लक़ से दामन आ गिरे
मेरे बदा में वो ख़ूबसूरत तस्वीर बना देना ।
बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...