मंगलवार, 10 जनवरी 2023

बड़ी कातिल है मुस्कुराहट मेरी

बड़ी कातिल है मुस्कुराहट मेरी

जबसे ख़्वाब तेरा सजाने लगी हूँ
नाम का तेरे काजल लगाने लगी हूँ
लोग कहते बड़ी खूबसूरत हैं आँखें मेरी
चिलमन और भी अदा से उठाने गिराने लगी हूँ ।

जबसे अलकें गिराने लगी माथ पर
इठलाती बलखाती चलने लगी राह पर
लोग कहते बड़ी शोख़ है नज़ाकत मेरी
कटि नागन सी और भी मटकाने लगी मार्ग पर ।

जबसे जिक्र पर तेरे मुस्कराने लगी हूँ
हाल दिल का निग़ाहों से बताने लगी हूँ 
लोग कहते बड़ी कातिल है मुस्कुराहट मेरी
खिलखिला और भी बिजलियाँ गिराने लगी हूँ ।

जबसे जाम पी है नशीली आँखों का
गुदगुदाता रहता है पल चाँदनी रातों का 
लोग कहते बड़ी नाज़ों सी है नफ़ासत मेरी
ढाती और भी क़यामत हूँ होता असर बातों का ।

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 

शनिवार, 7 जनवरी 2023

कितनी शान से इतराता है तूं

ऐ चाँद उतर आ जरा जमीं पर 
ये दुनिया तुझको भी नहीं बख़्शेगी 
ग़र हटा दो मुख से घूँघट बदली का
देख नज़ारा दुनिया यूँ ही सहकेगी ,

कभी बन ईद का चाँद ठसक से
कितनी शान से इतराता है तूं
कभी सुहागिनों के करवाचौथ का 
बन चाँद छुप मनुहार करवाता है तूं

चाँद सा मुखड़ा से नवाजते तुझे लोग
छतों की मुंडेरों से निहारते तुझे लोग
जब लगता तुम पर ग्रहण ऐ चाँद 
क्यों इसी चाँद से आँख भी चुराते लोग  

कभी तुम ग़ज़लों का सरताज बन
महफ़िलों को कर देते हो गुलज़ार 
कभी शेरो,शायरी,नज़्म में सज तुम
सूने बज़्म को भी कर देते हो आबाद 

कभी तुम चौदहवीं का चाँद बन
कहलाते हो बड़े ही हो लाज़वाब 
कभी तुम तनहा बादलों के पीछे
छुप-छुपकर कर देते हो नाशाद

कभी ईश्क़ की दौलत बन तुम
सज जाते हो आँखों में बन ख़्वाब 
कभी जेहन में,कुरेदकर जख़्मों को,
दोस्तों का अक़्स उतार देते हो जनाब

कभी उपमानों की कतार का
बन जाते हो चन्दा सा उजियार 
कभी उतरकर समंदर,दरिया में 
सुरमई चाँद बन जाते हो यार

किसी के होते पलकों के चाँद तुम 
किसी के इन्तज़ार के महबूब तुम 
किसी के हमसफ़र होते तुम चाँद 
किसी की उपमा के होते चार चाँद

तुझसे होती खूबसूरत शाम भी चाँद 
तेरी रोशनी में छलकते जाम भी चाँद 
कहर ढाते हो ईश्क़, हुस्न की बदा पे
इसीलिए करते हो रस्क अपनी अदा पे ।

शैल सिंह 
सर्वाधिकार सुरक्षित 


रविवार, 1 जनवरी 2023

नव वर्ष पर कविता " समरसता की गागर छलके "

समरसता की गागर छलके

नव वर्ष लाये ऐसा उपहार 
हम सबके सपने हों साकार 
खुशियों की दे अनमोल सौगात 
कर दे राहों में फूलों की बरसात ,

महकी हुई मधुमासी हवाएं हों
सहकी हुई फिजाएं हों
परिन्दे चहकें बगिया गमके 
उल्लसित सभी दिशाएं हो ,

आत्मीयता से भरा हो मन 
सुखमय हो हर घर उपवन 
रिश्तों में हो मधुर मिठास 
नव वर्ष में हो अतिरिक्त खास ,

सर्वत्र उत्कर्ष,उल्लास,हर्ष हो 
ऐसा हम सभी का नया वर्ष हो
मर्यादा का कभी ना हो उलंघन 
हम सबके भावों में हो समर्पण ,

बीते वर्ष की खटास,वैमनस्यता
भूलें अनबन,उदासी,असफलता
लक्ष्यों को साकार करने हेतु 
करें संघर्ष हम मिले सफलता ,

ऊँच-नीच,भेदभाव मिटायें 
मन में कोमलता का भाव जगायें
नव वर्ष में नये कार्य सम्पन्न हों
नहीं कोई भूखा,गरीब विपन्न हो 

कोशिशों,हौसलों के पंख लगाकर
अपने अरमानों के उड़ान को,
उतार लाएं मेहनत,श्रम से हम
फलक से जमीं पर आसमान को ,

अतीत की अच्छी स्मृतियों से 
वर्तमान को बनायें सुन्दर और
समरसता की गागर छलके 
आये वर्ष भर अनेक अवसर और ,

दुख,दर्द,मुसीबत,बिमारी हेतु
करें प्रार्थना जड़ से हो नदारद 
सन दो हजार तेईस सभी को 
तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारक ।

शैल सिंह
सर्वाधिकार सुरक्षित 



मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

ऐ ख़ुदा --

ऐ ख़ुदा --

                ना तो हीरे रतन की मैं खान मांगती हूँ
                  ना चाँद,तारे,सूरज,आसमान मांगती हूँ
              मेरे हिस्से की धूप का बस दे दे किला
                  जरुरत की जीस्त के सामान मांगती हूँ ।


               फाड़कर ना दे छप्पर कि पागल हो जाऊँ
                    रूठकर ना दे मन का कि घायल हो जाऊँ 
              अपने दुवाओं की सारी कतरनें बख़्श देना
                  कि तेरी बंदगी की ख़ुदा मैं क़ायल हो जाऊँ । 


              गुज़ारिश है आँखों में वो तदवीर बना देना
                    मेरी ख़्वाहिशों का मेरे तक़दीर बना देना
             टूटकर कोई तारा फ़लक़ से दामन आ गिरे
                    मेरे बदा में वो ख़ूबसूरत तस्वीर बना देना । 
     


                                                                        शैल सिंह

मंगलवार, 13 दिसंबर 2022

गज़ल " बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें "

गज़ल " बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें "

नाम पर आपके हम मुस्करा क्या दिए 
कि लोग अन्दाज़ जाने लगा क्या लिए 
छुपाना तो चाहा था मैंने मुहब्बत मगर 
ईश्क़ के उसूल ही ऐसे,ख़ता क्या किये ।

खुश रहे तूं सदा दुआ ये मांगा ख़ुदा से 
हँसी होठों पे रहे सदा ऐसी ही अदा से 
जैसे ख़ुश्बू निभाये साथ गुलों का सदा 
वैसे रहे हाथ तेरा भी मेरे हाथों में सदा ।

महफ़िलों में भी बैठकर मैं अन्दाज़ ली 
कितनी बिन तेरे अधूरी मैं अहसास ली 
लाखों की भीड़ में भी लगे अकेली हूँ मैं 
चले आओ फिर ज़िन्दगी हो बिंदास सी ।

न जाने मेरी आँखों को क्या हो गया है 
कि आईना निहारूँ आये तूं ही तूं नज़र 
चढ़ा कैसा ख़ुमार मुझपर तेरे प्यार का 
पांव रखती कहीं हूँ पड़ते कहीं हैं मगर ।

छिपा रखा जो दिल में कह दो वो राज 
चैन चुराने रातों में मत आया करो याद
बता सीखा कहाँ से तूने करतब ये फ़न 
बेचैन कर ख़्वाब में ना किया करो बात । 

बहुत याद आये रे सावन की भींगी रातें 
तस्वीर लेके तेरी हाथों में करती हूँ बातें 
भींगती आँसुओं की बारिश में निशदिन 
अरे कहीं देर ना हो जाये तेरे आते-आते ।

शैल सिंह 



शनिवार, 10 दिसंबर 2022

'जीवन राग'

         जीवन राग 

ना जाने किस बला की नज़र लग गई है 
कि मस्ती भरा  आलम कहीं  खो गया है 
किलकारियों को भी  ग्रहण लग  गया है
आकर्षण  भी ना जाने कहाँ  सो  गया है।   

जहाँ बेला,जूही,चम्पा सुवासती थी चमेली
वही हो गई है मरुभूमि सी मन की हवेली 
प्रेम राग रूठ गया अन्तर्मन के घोंसलों से  
कंटीली कंछियाँ फूटीं हृदय के अंचलों से। 

चिंताओं,तनावों की घेरि आई कारी बदरी
प्रेम की धरा पर रेगिस्तान जैसी रेत पसरी 
अरमान सूखा,सूख गयीं रसपगी भावनाएं  
वक्त के परों पर उड़ विलीन होतीं करुनाएं। 

जरुरत है जीवन में फिर से राग रंग भरना 
उर की स्वच्छ वेदी पे विकार आहूत करना 
आन्तरिक सफाई कर के पौधे संस्कार की 
सुन्दर पुष्प खिल सकें रोपें सूखी संसार की।

बड़े-बड़े मॉल, शहर, कालोनी चौड़ी सड़कें
दब जाये ना मानवता इस मोह में सिमट के
प्रगति की हूँ पक्षधर  विस्तारों का उद्देश्य भी 
सीमित यन्त्र में न खो जाये कहीं मूल ध्येय ही ।

मंहगे मोटरकार,बंगले चिन्ताग्रस्त इंसान क्यों
सुविधाएँ,साधन सम्पूर्ण फिर मन अशांत क्यों 
भवनों में रहने वाले क्यूँ रूग्ण खिन्न आजकल
हँसता,मुस्काता दिखता क्यूँ न कोई आजकल ।

नींद भी नसीब नहीं गुदगुदे बिछे बिस्तरों पर
नींद की खा-खा  गोलियां सो रहा इन्सान हर
महल भौतिक  संसाधन सड़कें  क्या बनाकर
कि पीछे छूट जाये मानवता ऐसे विकास कर ।

बाजारवाद,भौतिकवाद बस अर्थ की प्रधानता
संवेदनशून्य हो गए हम इन्द्रजाल में संलिप्तता
कैसी ये विडम्बना देखो जप,तप,ज्ञान,मान,दान
मृगमरीचिका सी तृष्णा में भूले हैं सब उपादान ।

गाँव,देश,प्रान्त का उत्थान हो,हो मन में भावना
सपनों की शैया पर मृदुल अरमान ऐसे पालना
हो अंतःकरण स्वस्थ, हो अभ्युदय का पदार्पण
तभी होंगे आनंदित हम ले सुख का रसास्वादन ।
                 
                                                     शैल सिंह  

गुरुवार, 17 नवंबर 2022

ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों

उत्तराखंड की त्रासदी पर
ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों


अरे मेघ जलवृष्टि चाहा था प्रचण्ड जल प्रलय का ऐसा हाहाकार नहीं
सूखी बंजर धरती में अंकुर फूटे धन,जन क्षति का ऐसा चित्कार नहीं।

प्राकृतिक छटा के मोहपाश ने लील लिए बेकसूर जीवन जाने कितने
तेरी क्रूरता पार की आंकड़ा तड़प बता सिहर उठते,जीवित हैं जितने।

देवभूमि दरश की भूखी आँखों का यम से यह कैसा साक्षात्कार हुआ
कुछ काल के गाल में गए समा कुछ को भष्मासुर का क्रूर दीदार हुआ।

कैसे जज़्ब करें अपनों के खोने का ग़म वादी ने आत्मसात किये हैं जो
रूह कंपाने वाली अलकनंदा,मंदाकिनी ने बर्बर वहशियात किए हैं जो।

भगीरथ तेरी उद्दंड भयावह क्रीड़ा जो विस्फारित दृगों ने देखा अचंभित
अथाह छलकाया था जल का सागर फिर भी प्यासा तरसा तन कम्पित।

जाने किस कन्दरा दुबक गए देव असहाय ,बेसहारा कर श्रद्धालुओं को
उत्पात हुआ केदारनाथ के गढ़ में जिंदगी की हवाले मिटटी बालूओं को।

आस्था का ये कैसा इतिहास रचा अपने अस्तित्व के होने या ना होने का
अंधभक्ति का ये क्या सिला दिया अद्दभूत शक्ति के होने या ना होने का।

भ्रम के भंवर में खा रही हिचकोले अब तो अति विश्वास की नैया जग की
जलाभिषेक,उपवास,अर्चना करें नैवेद्य अर्पित,शीश नवायें किस पग की।

अगर प्रकृति से खिलवाड़ हुआ तो प्रकृति ने भी जघन्य उपहास किया है
ईश्वर भी इतना अस्मर्थ हुआ क्यों,शरणागतों से बेरुखा परिहास किया है।
 
                                                                                    शैल सिंह  

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...