शनिवार, 16 जुलाई 2022

रिमझिम पड़ें फुहारें जल की,बूँदें लगें सुखदाई

रिमझिम पड़ें फुहारें जल की,बूँदें लगें सुखदाई


बहुत सुहावन अति मनभावन सावन का महीना 
व्रत,त्यौहारों का पावन मास  सावन मास नगीना ।

सुमधुर स्वर में  गाये कोयलिया दादुर छेड़े तान
सुन के सिहर उठे करेजा विरही चातक के गान
आस हुए सब मन के पूरे  उत्फुल्ल  हुए किसान 
लगे दुलहन सी  सजी धरा हरित  पहिर परिधान ।

रिमझिम पड़ें फुहारें जल की,बूँदें लगें सुखदाई
भरें हृदय में तरंग संगीत सा बहे मादक पुरवाई 
छटा बिखेरे काली घटा  सुषमा चहुँओर बिछाई 
मन मोहे मोर का नर्तन नाचे पर फहरा अमराई ।

सोंधी-सोंधीं गंध उठे उपवन की महक निराली
इंद्रधनुष की आभा न्यारी  खोल लटें बिखरा ली
गूँज उठे कजरी के धुन पड़े झूले नीम की डाली
जेठ की तपती गर्मी ,स्वेद से मुक्ति सबने पा ली ।

पहन कर हरी चूड़ी कलाई मेंहदी रच हथेली में
पी घर गईं सखी सब विहँस कर लाली डोली में
चंचल चाँद बहु छिछोरा छिप घटा की खोली में
उतर अटारी करे बेशर्मी पा तन्हा मुझे हवेली में ।

कल-कल बहे नदी की धारा उफनें ताल,तलैया 
कहीं बेदर्द हुई पावस कहीं बहा ली बाढ़ मड़ैया
कहीं सूखे से लोग बेहाल मचा कुहराम हो भैया
मेंह वहाँ भी जा बरसो  तरसे जहाँ वसुंधरा मैया

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                  शैल सिंह 




सोमवार, 11 जुलाई 2022

कहना मुश्किल जो लफ़्ज़ों में

कहना मुश्किल जो लफ़्ज़ों में 


मुझे जब भी सताये याद तेरी
ले कर तस्वीर तुम्हारी हाथों में
नयनों की तृषा बुझा सुख पा लेती हूँ ।

हँसी के पर्त में दर्द छुपाकर
यादों के तराने होंठों पे सजाकर 
गा-गा कर ग़म पर विजय पा लेती हूँ ।

कहना मुश्किल जो लफ़्ज़ों में 
लिख कर ख़ामोशी से पन्नों पर 
अंदर के निनाद से नजात पा लेती हूँ ।

अक्सर ही हृदय के प्रांगण में
हू-ब-हू सजाकर अक्स तुम्हारा
दृग को दरश करा दौलत पा लेती हूँ ।

बहुत वफ़ादार हैं यादें तुम्हारी
निभाती रहीं जो वादे आज तलक़
वादों के सौगात से हयात पा लेती हूँ ।

जो दर्द छिपा रखी हूँ सीने में
उस दर्द की कोई माकूल दवा नहीं
दर्द से ही दर्द का उपचार पा लेती हूँ ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                  शैल सिंह 


गुरुवार, 7 जुलाई 2022

दर्द भरी गज़ल

          दर्द भरी गज़ल


दर्द तो उमड़ा बहुत आँसुओं  में बह जाने के लिए
हम तो बस हँसते रहे आँसुओं को छुपाने के लिए ।

ज़िंदगी को दर्दे अश्क़ का हर रंग दिखाने के लिए 
दिल में कर लिया हर दर्द जज़्ब मुस्कुराने के लिए 
मेरी तकलीफ़ों का अंदाज़  भला क्यूँ हो किसी को
ख़ुद को ही भूला दिया जब उसे भूल जाने के लिए ।

दर्द तो उमड़ा बहुत आँसुओं  में बह जाने के लिए
हम तो बस हँसते रहे आँसुओं को छुपाने के लिए ।

हर नई सुबह संग लाती साथ  रातें सुलाने के लिए 
पलकों पे बिछाती मीठे ख़ाब  रातें रिझाने के लिए  
जागूँ या सोऊँ,तड़पूँ क्या फ़र्क़ पड़ता है किसी को
नींद भी होती कोसों दूर सारी रात तड़पाने के लिए ।

दर्द तो उमड़ा बहुत आँसुओं  में बह जाने के लिए
हम तो बस हँसते रहे आँसुओं को छुपाने के लिए ।

जब ख़्वाहिशों का कर दिया क़त्ल जमाने के लिए 
कर ली तन्हाईयों से दोस्ती  दिल बहलाने के लिए 
ढाती हूँ कितना ज़ुल्म ख़ुद पर क्या पता किसी को
कैसे कट रही ज़िन्दगी दुनिया को दिखाने के लिए ।

दर्द तो उमड़ा बहुत आँसुओं  में बह जाने के लिए
हम तो बस हँसते रहे आँसुओं को छुपाने के लिए ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                शैल सिंह




शुक्रवार, 24 जून 2022

मजदूरों के पलायन पर कविता

कॅरोना काल में मजदूरों के पलायन पर कविता

मख़ौल ना उड़वाइये राज बहुत देखे हैं

विरान कर गांवों को तुम गये थे शहर
सालों देखा ना मुड़ ली ना कोई खबर
शहरी चकाचौंध में मोड़ा मुँह माटी से
क्यों याद आने लगी अब उसकी डगर ।

तब तो सूने रूदन ना बूढ़े मां-बाप की
सुधि तक ना  लिये घर के  हालात की
रंच आई ना याद  रोटी माँ के हाथ की 
अब लौट रहे तोहफ़े लेकर जमात की ।

थी चादर जितनी पांव उतनी पसारते
संग परिजनों के मस्त ज़िंदगी बिताते
नौबत आती ना ऐसी ना तुम ऐसे रोते
नून रोटी खा ना सत्ता को ऐसे कोसते ।

दोष परिस्थिति का कुसूरवार करोना 
दोष किसी के किसी और पे मढ़ो ना
सबपे आफ़त एक सी दंश एक जैसा
कहो ना प्रशासन से उठ गया भरोसा ।

वस्तुस्थिति से वाक़िफ हर एक इंसान
एक सूक्ष्म वायरस से जूझ रहा जहान
गर्भवती महिलाएं  बूढ़े-बच्चे नौजवान
चल पड़े हैं पैदल जाने बिना समाधान ।

असमय हो गये कई हादसों के शिकार 
रह गई वक्त के सन्नाटे में दबी चित्कार
व्यवस्थायें तो हुईं मगर बिलम्ब हो गया
हताशा ने तोड़ा,सब्र का बाँध छल गया ।

जिन मुसीबतों ने किये घर से दर-बेदर
वो संग चलती रहीं राहों में ढाती क़हर
सह थोड़ी कठिनाईयाँ ना छोड़ते शहर
काज से न जान से हाथ धोते इस क़दर ।

परेशानियाँ तो आतीं जातीं धैर्य धर लेते 
जब लॉकडाउन खुलता सफ़र कर लेते
आख़िर सब हुआ सर पर घर उठा लिये 
कितना झेले संताप बिना सोचे चल दिये ।

लादे सिर पर गठरी जाने किस ठाँव की 
पोस्ट कर रहे छवि,छाले दिखा पांव की
कुछ तो सेंकें रोटी इस पर राजनीति की
कुछ कर रहे हैं बातें अक्सर अनीति की ।

परिवेश की मजबूरियां भी देख बोलिए 
औरों की तुलना में प्रशासन को तोलिये
मख़ौल ना उड़वाइये राज बहुत देखे हैं
सत्तर वर्षों ने ही निर्धन मजलूम पोसे हैं ।

किसी को जनाधार बढ़ाने की फिकर है
किसी को फिकर वोट खिसक जाने की 
प्रवासी श्रमिक बने हैं सियासत का मुद्दा 
किसी में मची होड़ है परवाह जताने की । 

जाने कितनी बनीं  योजनाएं इनके लिए
कितनी होतीं घोषणाएं रोज़ इनके लिये
कभी मानसिक गरीबी ख़तम होती नहीं
रोजी हेतु है निर्धारित काज सबके लिए ।

पलायन किये जां जोख़िम में ये डालकर   
त्रासदी का अभियोग शासन पे लगाकर  
मज़दूर तो सभी किसी ना किसी रूप में
कैसी कर रहे फ़ज़ीहत तोहमत लगाकर ।

दर्द हमें भी बहुत दृश्य राह का देखकर
इतनी संख्या दें कहाँ से खाद्यान्न पेट भर
दिए थे कभी ये भी  जख़्म गांव छोड़कर 
उसी निर्दोष गांव चले ये कैसे मर्ज़ लेकर ।

लौटने लगीं रौनकें देखो गांवों में फिर से
उमड़े सघन घटा हर्षित आँखों में घिर के
स्वागत  कर रहीं पगडंडियां बांहें फैलाए 
पुलकित अभिनंदन में सुमन राहें बिछाए ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह

मंगलवार, 10 मई 2022

बारिश पर कविता

             बारिश पर कविता 


पूरवा भी नहीं देती आभास,मेघ आगमन का तेरे
पपीहा,कोयल,मयूर अधीर,हैं अभिवादन को तेरे ,

किससे भेजूँ पाती तुमतक,कैसे भेजूँ तुम्हें संदेशा 
रूख से तेरे कहीं लगे न मॉनसून का मेघ अंदेशा
क्यों सज सँवर कर ऐंठी हो,मेंह लगाकर काजल
क्यों अनशन पर बैठे, खोलो द्वार हृदय के बादल ,

बारिश की बूँदों का भेजो, घटा ज़रा नज़राना तुम
रेती से हाथ मिलाने का,ढ़ूंढ़ कर कोई बहाना तुम 
मेहरबानी कर बरसो आ बादल,तपन भगाओ दूर 
धरती का आँचल है सूखा,सपने हो रहे चकनाचूर ,

कैसे करें मनुहार तुम्हारा,बहुत दूर देहात तुम्हारा
कैसे तोड़ें दम्भ तेरा,हो पराजित अभिमान तुम्हारा
सूरज आतप बरसाता, फूट रही पृथ्वी से चिन्गारी
अभिशप्त सा लगता जीवन, सूख रही हैं फुलवारी ,

सभी कुएं प्यासे नीर लिए,सागर उदासा क्षीर लिए 
तरस रही सीपी की मोती,स्वाती की इक बूँद लिए 
हे इंद्रदेव अब कृपा कर बरसें,दहक रही है धरती
फलक निहारते ठूँठे दरख़्त,सब खेत पड़े हैं परती ,

जनजीवन बेहाल तपिश से,मेघ मल्हार सुनाओ ना
वृष्टि के अविच्छिन्न धार से,अतृप्त तृषा मिटाओ ना
पावस की पहली सौगात से,धरा को सरसाओ मेघ
भर दो नथुनों में सोंधी गंध अब नहीं तरसाओ मेघ ।
 
सर्वाधिकार सुरक्षित 
               शैल सिंह 

सोमवार, 9 मई 2022

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल


मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते

आती अवरोधों की तोड़ जंजीरें सब
कभी आवाज़ दे तुम पुकारे तो होते ,
टूटे दिल की किरिचें संभाले है रखा
जोड़कर रेज़ों को तुम निहारे तो होते

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते ।

भोली मस्ती थी नादां से अहसास थे
नाज़-नखरे कभी तुम संवारे तो होते ,
मोम की गुड़िया सी मैं जाती पिघल
प्यार की आँच से तुम दुलारे तो होते ,

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते ।

छोटी-छोटी मेरे ख़्वाहिशों की मीनारें
मन समंदर उतर तुम विहारे तो होते ,
हद-ए-बेरूख़ी पर सब्र का बांध तोड़ा
गाल गीले कभी तुम पुचकारे तो होते ,

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते ।

भावों की बह नदी में डूबी उतरायी मैं 
भावों की लहरों पर तुम उतारे तो होते ,
जग के ताने, छींटे, व्यंग्य,फिकरे सहे
तंज के झंझावातों से तुम उबारे तो होते ,

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते ।

तुम ज़िद पर अड़े मैं अपनी उम्मीद पर
कशमकश की ढहा तुम दीवारें तो होते ,
आस की ज्योति आँखों में होठों पे नाम
आ कर दहलीज़ पाटे तुम दरारें तो होते ,

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते ।

फासले सब मिटा सुन सदा ज़िन्दगी की
मुश्क़िलों के दरमियां तुम सहारे तो होते ,
कभी प्रीत के हर्फ़ से नम व्यथा कंचुकी
आ द्वारे ज़ज्बातों के तुम निथारे तो होते ,

मैं तो ऐसी नगीना थी ऐ संग दिल
तराशकर हीरे सा तुम निखारे तो होते ।

                                       शैल सिंह













गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

गर्मी पर कविता

               गर्मी पर कविता


जलता रहता दिन भर सूरज तपती रहती है धरती
दिन तो कट जाता किसी तरह पर रात नहीं है कटती
टप-टप चूता सर से पांव पसीना गर्मी ऐसी कहर बरपती
चाहे जितनी करूं सिफारिश किसी दिन बदरी नहीं बरसती,

ताप सहन करना मुश्किल झुलस रहे हैं पेड़ पालो
तन को मिले तनिक न चैन चाहे जितनी बार नहा लो
शुष्क सा हरदम रहे हलक जल चाहे ठंडा कण्ठ में डालो
तर करती नहीं लस्सी भी,आइसक्रीम कुल्फी जो भी खा लो,

जल दिखता नहीं तलहटी में वीरान पड़े हैं पनघट
सूना-सूना गांव,दिखे ना पीपल छाँव तले की जमघट
खग,पक्षी,ढोर,मवेशी प्यासे सूखे ताल,नदी,पोखर के तट
बहे ना पुरवा,पछुवा बैरन सबके बंद झरोखे,किवाड़ों के पट,

एसी,कूलर,पंखा रहम करें क्या बिजली रहती गुल 
मौज मनाने को होती छुट्टियाँ गर्मी खा गई मस्ती चूल
बाहर जाने की पाबन्दी लू के थपेड़े भक-भक उड़ती धूल
बंद पड़े हैं घर में कैदी के जैसे चिलचिलाती धूप लगती शूल,

चूल--चंचलता
  सर्वाधिकार सुरक्षित 
                  शैल सिंह 

बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...