गर्मी पर कविता
दिन तो कट जाता किसी तरह पर रात नहीं है कटती
टप-टप चूता सर से पांव पसीना गर्मी ऐसी कहर बरपती
चाहे जितनी करूं सिफारिश किसी दिन बदरी नहीं बरसती,
ताप सहन करना मुश्किल झुलस रहे हैं पेड़ पालो
तन को मिले तनिक न चैन चाहे जितनी बार नहा लो
शुष्क सा हरदम रहे हलक जल चाहे ठंडा कण्ठ में डालो
तर करती नहीं लस्सी भी,आइसक्रीम कुल्फी जो भी खा लो,
जल दिखता नहीं तलहटी में वीरान पड़े हैं पनघट
सूना-सूना गांव,दिखे ना पीपल छाँव तले की जमघट
खग,पक्षी,ढोर,मवेशी प्यासे सूखे ताल,नदी,पोखर के तट
बहे ना पुरवा,पछुवा बैरन सबके बंद झरोखे,किवाड़ों के पट,
एसी,कूलर,पंखा रहम करें क्या बिजली रहती गुल
मौज मनाने को होती छुट्टियाँ गर्मी खा गई मस्ती चूल
बाहर जाने की पाबन्दी लू के थपेड़े भक-भक उड़ती धूल
बंद पड़े हैं घर में कैदी के जैसे चिलचिलाती धूप लगती शूल,
चूल--चंचलता
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार(३०-०४ -२०२२ ) को
'मैंने जो बून्द बोई है आशा की' (चर्चा अंक-४४१६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत-बहुत आभार आपका अनीता जी मेरी रचना को इस चर्चा मंच पर शामिल करने के लिए ,धन्यवाद
जवाब देंहटाएं'खग,पक्षी,ढोर,मवेशी प्यासे सूखे ताल,नदी,पोखर के तट
जवाब देंहटाएंबहे ना पुरवा,पछुवा बैरन सबके बंद झरोखे,किवाड़ों के पट' ---
सुन्दर शब्द-विन्यास!
इतनी सुंदर प्रतिक्रिया देने के लिए आपका हृदय से आभार
हटाएंबहुत सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना का अवलोकन करने के लिए आपका हृदय से आभार
हटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत धन्यवाद हरीश जी
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