शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

" खड़ी तूफां से लड़कर साहिल पे योद्वा की तरह "

बड़े गुमान से उड़ान मेरी,विद्वेषी लोग आंके थे
ढहा सके ना शतरंज के बिसात बुलंद से ईरादे 
ध्येय ने बदल दिया मुक़द्दर संघर्ष की स्याही से
कद अंबर का झुका दिया मैंने हौसलों के आगे ।

प्रयास दोहराने में हो लीं साहस विफलतायें भी   
विस्तृत भरोसों ने खींचीं कल्पनाओं की रंगोली
असम्भव सी मिली जागीर जो है आज हाथों में
बन्द अप्रत्याशित प्रतिफल से निंदकों की बोली ।

कंटीली झाड़ियों,वीहड़ रास्तों पे चलकर अथक
बाधाओं को पराजित कर जीता जड़कर शतक
खड़ी तूफां से लड़कर साहिल पे योद्वा की तरह
ग़र लहरें करतीं अस्थिर कैसे पाते डरकर सदफ़ ।

पड़ाव ज़िंदगी में आया कितना उतार,चढ़ाव का 
खा-खा कर ठोकरें भी हम नायाब हीरा बन गये
बहुत लोगों को परखी ज़िंदगी दे देकर इम्तिहान
लोग समझे दौर खत्म मेरा देखो माहिरा बन गये ।

सदफ़--मोती ,  माहिरा--प्रतिभाशाली 
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शैल सिंह

रविवार, 6 सितंबर 2020

" सफलता पर कविता "

सफलता पर कविता

मेरे अपनों ने की ना कभी कद्र हुनर की 
सब समझते रहे कतरा मैंने इसके वास्ते
विस्तार समंदर सा था जबकि मुझमें भी 
बह दरिया की तरह बना लिए मैंने रास्ते ।

आसमान छूना इतना आसां ना था मग़र
दिशा गंतव्य को देना शिद्दत से अड़ गये
जूझा संघर्षों से अकेले कोई ना साथ था
सार्थकता में जाने कितने रिश्ते जुड़ गये ।

मंजर जो हौसलों का तरकश दिखाया है
ऐ परिहास करने वालों देखो अंत हमारा 
कोशिशों के तीर से मैदान में उम्मीदों के
बाँधे जीत का सेहरा रच वृतान्त सुनहरा ।

भटकती अभिलाषाएं भी उत्साह बढ़ाईं
मन का विश्वास,साहस फौलादी हो गया 
दीयों की तरह जल-जल हर रात तपी मैं
हर्ष दहलीज मेरी चूमा जज्बाती हो गया ।

कतरा--बूंद,  सार्थकता--सफलता,
वृतान्त--इतिहास,   हर्ष--खुशी
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह


शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

" नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां "

ग़र दर्द सारे तुम अपने दे देते मुझे
पिरो ग़ज़लों में बज़्म में सुना देती मैं
पीर उर की जो कह ना सके खोलकर
हर कड़ी उसकी बज़्म में गुनगुना देती मैं ।

क्यों गम्भीर मुद्रा तुम अपना लिए
मन वीणा के तार कभी छेड़े तो होते
चाहा बहुत ढाल बन जाऊँ तेरे दर्द की 
दर्द अधरों के पट अनकहा उकेरे तो होते ।

ख़ामोशी का इक कवच ओढ़ कर
मौन के यज्ञ ग़म का हवन बस किये
तान वितान नजदीक तुमने तन्हाई का 
मेरे कौतूहल का हँसकर शमन बस किये ।

नदी के तट सी मुझसे बना दूरियां 
गीला मन क्यों पाषाण सा कर लिया
मन का मकरंद मैं तुम पर लुटाती रही
मुझे भी तुमने भींगे सामान सा कर लिया ।

क्यूँ मुख़ालिफ हवायें हुईं प्रीत की
काश निहारा तो होता कभी प्यार से
कभी चुप्पी की चादर हटाकर नैन भर
भींगे होते मेरे नयनों की भी कभी धार से ।

शमन---शान्त करना
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शैल सिंह

सोमवार, 3 अगस्त 2020

बादल पर कविता " ऐ नभ के कारे बादलों क्यूँ भाव हो खाते "

अरे बादलों बरसना है तो बरस जाओ ना
ऐसे रोज-रोज घन घेर कर डराते हो क्यों 
हवाओं का झकोरा दामिनी की दहाड़ से
गुजरे लम्हों की सुध फिर दिलाते हो क्यों ।

बीते सुहाने रूत भींगा-भींगा सा एहसास
सर्द-सर्द फ़िज़ाएं धुंआं-धुंआं सा आकाश
सूर्यास्त का तमस झींसियों से भिंगो देना
फिर यादों के आवर्त में आकंठ डुबो देना ।

कहीं ऋतु ना बीत जाये आवारा सा फिरे
मिटे भू की तिश्नगी बरसा फुहारा सा नीरें
ऐ नभ के कारे बादलों क्यूँ भाव हो खाते
राहत के सांस दो उमस से क्यूँ हो सताते ।

तूं ख़ुद तो फिरे चन्दा को आगोश में लिये
रोयें किसी की ख़ाहिशें ख़ामोश लब सीये
कोई रोज भींगता भीतर की वृष्टि में मगन
दे सलिल की सौगात धरा हो जाये दुल्हन ।

भृकुटी तनी तेवर मेघ नज़ाक़त किसलिए 
ताने घूँघट घटा के इतने उन्मत्त किसलिए
दरकी धरती सूखी नदियां व्याकुल परिन्दे
दग्ध हृदय विरहणियों के बरसा तरल बूँदें ।

तड़-तड़ा गड़क-तड़क अंतर्ध्यान हो जाते
गड़-गड़ा ग़ुर्रा के नीला आसमान हो जाते
बरसो झमाझम सावन मनभावन हो जाये
चहुँ दिशाएं नन्ही बूंदों से सुहावन हो जाये ।

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शैल सिंह




शनिवार, 25 जुलाई 2020

" धड़कतीं अभी धड़कनें तेरे इंतज़ार में "

धड़कतीं अभी धड़कनें तेरे इंतज़ार में


हसीं स्वप्नों की लड़ियाँ पिरो आँखों में
सजा रखी हूँ पलकों के शामियानों में
ली कैसे करवटें सलवटों से पूछ लेना
मुस्कान का मधुमास दे लब चूम लेना ।

फड़कें आँखें कभी तेरी तो सोच लेना
के जिक्र तेरा लब से छेड़ रहा है कोई 
नींद आँखों से बैरी हुयी तो सोच लेना
के याद के लौ में तेरे जल रहा है कोई ।

कसमसा लें कभी अंगड़ाई  बांहे तेरी
महसूस लेना कहीं बांहों में मैं तो नहीं
ओढ़ कर लिहाफ़ सोना मेरे यादों की
आभास लेना जिस्म संग मेरा तो नहीं ।

आओ इक  बार तुमको  लगा ले गले
जाने कब कहाँ  मौत आ लगा ले गले  
फिर जाने लौट  दिन ये आयें ना आयें
वक्त मनहूस फिर मिल पायें  ना पायें ।

सांसें अंटकी  तुम आओगे तक़रार में
धड़कतीं अभी धड़कनें तेरे इंतज़ार में
प्रीति की ओस से आ बुझा प्यास मेरी
दो बूंद को चातकी सी लगी आस तेरी ।

तुम गये जिस जगह थे मुझे छोड़ कर
पथ निरखती  मिलूँगी  उसी  मोड़ पर
मन की वीणा के तार आ झनझना दो 
ग़ज़ल प्यार की फिर कोई गुनगुना दो ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह


मंगलवार, 7 जुलाई 2020

आज की परिस्थिति पर कविता

आज की परिस्थिति पर कविता


क्या कहें कैसा हो गया है आलम
नीरस विरक्तता छाई है हर तरफ 
घुट रहा है दम अब तो सन्नाटों से 
प्रचण्ड स्तब्धता छाई है हर तरफ ।

न कोई किसी की ख़ैरियत पूछता
ना तो किसी का दर्दे हाल जानना
ख़ुद से ही हो गए हैं सब अजनवी
ना कोई चाहे किसी से हो सामना ।

कितना लाचार कर दिया व्याधि ने 
आपसी सौहार्द मेलजोल ही खतम
फिर कब आएंगे दिन लौट सुनहरे  
कब नई भोर का प्राची से आगमन ।

है फन काढ़े खौफ़नाक भयावहता
लगता जैसे हवाएं विषैली हो गईं हैं
सर्वत्र करते परिभ्रमण यमदूत जैसे
उचट ज़िन्दगी भी कसैली हो गई है ।

सजना -संवरना  पहनना- ओढ़ना
लगे सबपे कोरोना का ग्रहण भारी
घूमने टहलने पे भी लगीं पाबंदियां
पूरे विश्व में कोविद का क़हर जारी ।

घर भी मुद्दत से मेरे ना आया कोई 
नाकारा लगे घर का साजो सामान 
नाता सबसे तुड़ा दिये नाशपीटी ने
क्या इससे निपटने का हो अनुष्ठान ।

वर्षों पीछे ढकेल दिया महामारी ने
निठल्ला बैठे भी क्षति हुई वक्त की 
कई सपनों की टूटीं बिखरीं मीनारें 
युक्ति सूझे न इस मर्ज़ से मुक्ति की ।

जब घर से निकलें मुँह झाबा लगा
जानवर से भी बदतर हुई ज़िन्दगी
कब उन्मुक्त विचरेंगे समग्र जहान
हो सामान्य परिस्थिति करूं बंदगी ।

उत्तरोत्तर दिनोंदिन संक्रमण वृद्धि 
कारावास जैसे हालात हुए जा रहे
बंद पर्यटन स्थल मंदिरों के कपाट
देवी देवता भी प्रताप घटाते जा रहे ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह

गुरुवार, 4 जून 2020

याद पर कविता " उसकी यादों के महक सिवा "

ग़म सीने में छुपाये हँसी होंठों पे रखकर
रोक के आँसू आँखों में मुस्कराना सीख लिया
कबतक बहायें आँसू नैन कबतक ग़म का ग़म करें
जख़्मों को बना कर तराना मैंने गुनगुनाना सीख लिया ।  

बड़ी तल्ख़ी से ज़माने ने सवालात किये
सीखा हुनर लब सील कर जज़्बात छुपाने का 
थक गई है ज़िंदगी भी ढो-ढोकर कर्ज़ मोहब्बत का 
कब तक रखूँ सिलसिला आँसुओं से ब्याज़ चुकाने का ।

करना बदनाम उसे मेरी फ़ितरत में नहीं
बेक़सूर बेबाक़ी से उसको बताना सीख लिया
शाद था जबकि बेहिसाब ज़ालिम की दग़ा पे दिल
हो न वो बदनाम बहारों पे इल्ज़ाम लगाना सीख लिया ।

मुझसे मुझे जुदा कर जाने कहाँ गया वो
बस उम्मीदों के पांव बंधी दे खोल कोई ज़ंजीरें
उसकी यादों के महक सिवा चाहूँ न मैं तो कुछ भी 
बस दर्दे-दिल का सुकूं नयन में दे छोड़ संजोई तस्वीरें ।

करती है सियासत कैसी मुहब्बत भी तो
ज़िन्दगी को हर क़दम देना इम्तिहान होता है
लगे ईश्क में मुद्दत सा हर पल हर लम्हा जुदाई का
आँखों में पलते अज़ीब ख़्वाब लब पे दर्दे जाम होता है ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह


बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...