गुरुवार, 9 जुलाई 2015

ढलका सूरज भी आस्मा से निढाल हो

       ढलका सूरज भी आस्मा से निढाल हो        

      ( १ )

है कलमा,ग़ज़ल या ये शायर की रुबाई
हांल-ए-दिल सुन तबियत सिहर जाएगी ,

जब भी देखेगी दरपन में अपना ही मुख
भोली मासूम तस्वीर मेरी नज़र आएगी ,

चाहे जितनी जला ले तूं शम्मा इंतजार की
रुत रुठी ना जाने रुठकर किधर जाएगी ,

कुछ कसर छोड़ी होती कर वफ़ा की क़दर
क्या पता था नज़र बावफ़ा तेरी बदल जाएगी ,

कितने आँसू बहाये ज़ज्बे मेरे सितम से तेरे 
इक दिन वही बात आईना रुबरु कराएगी

हजारों मौजें दफ़न कर लीं मेरी खामोशियाँ 
ऐ दोस्त तेरी ऑंखें भी शर्म से झुक जाएगी ,

                   ( १ )

ये आजू-बाजू तेरे जो आज गुंचे खिले हैं
बह मत रौ में किरन सी बिखर जाएगी ,

तेरी पलकों पे टुकड़े कुछ बुलंदी के जो
क्यूँ दिखाती मुझे क्या वो मेरे घर आएंगी ,

बहेंगी मेरे भी परचम की निरंतर आँधियाँ
मेरा रुतबा सुन सारी ख़ुमारी उत्तर जाएगी ,

ढलकता सूरज भी है आस्मा से निढाल हो
अरे सोच पागल तूं ढल कर किधर जाएगी ,

रखना मुझे भी नहीं है तुझसे कोई राबता
ज़िन्दगी में फिर से घोल तूं जहर जाएगी ,

जमीं पर पांव रख चलना सीख जरा ढंग से 
चलन जो तेरी सबके नज़र से उत्तर जाएगी।



                                                शैल सिंह



मंगलवार, 7 जुलाई 2015

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में 


वह महफ़िल में आये सभी की तरह
पर लगे क्यों नहीं अजनवी की तरह ,

नज़र क्या मिली कुछ घड़ी के लिए
वीरां ज़िन्दगी में जैसे बहार आ गई
जो ना उनने कहा कुछ ना मैंने कहा
वही ज़ज्बात आँखों के द्वार आ गई,

सांसें मस्त हो गईं डूबकर ख़्वाब में
बिन पिए मय जैसी खुमार आ गई
निखर सी गया मेरी दुनिया का रंग
कोई सरगम सी जैसे झंकार आ गई ,

जिस छाया ने पागल किया था मुझे
सामने साया साक्षात् साकार आ गई
करती लाखों जतन ख़ुशी छुपती नहीं  
ज़िक्र बन शायरी लबे-ए-पार आ गई ,

फासले मिट गए चन्द मुलाकात में
करके ऐतबार दिल को करार आ गया 
मिली जबसे नजर रौशनी मिल गई
मोहब्बत भरा ख़त से इक़रार आ गया  ।

                                       शैल सिंह

सोमवार, 6 जुलाई 2015

जालिम करवटें

जालिम करवटें 


बेरहम करवटें जगा कर नींद से
भोर का विभोर सपना चुरा ले गईं ,

चाँद से बात कर रही थी ख्वाब में
पलकों पे तिरते परिंदे उड़ा ले गई ,

सूरज का साया दिखा छल किया
रात सितारों भरी छीन दगा दे गईं  ,

रात भर नींद आई कहाँ याद में ,पर
ख़ुश्बू से तर ये सुबह-ए-समां दे गईं ।

                                 शैल सिंह


रविवार, 5 जुलाई 2015

दर्प का रुख पर चश्मा लगाकर न बह

दर्प का रुख़ पर चश्मा लगाकर न बह


अच्छा इन्सान बन डर ख़ुदा के ख़ौफ़ से 
बेआवाज लाठी में भी होती हैं दुश्वारियां ।

कभी सामने रखकर अपने तुम आईना
पूछ लेना क्या-क्या तुममें हैं ख़ामियाँ 
दर्प का रुख़ पर चश्मा लगाकर ना बह
हवा देखना,पहाड़ साधे है ख़ामोशियाँ ।

शक़्ल  बदलेगी जिस दिन अपना गुमां
साथ अहबाब ना होंगे होंगी तन्हाईयाँ
गुरुर इतना भी अच्छा नहीं रूप-रंग का
दोस्त उम्र भर कहाँ साथ देतीं हैं रानाईयां ।
 
दम्भ,मद-अहं से लबरेज ये मिज़ाज लहज़े
अपने आबो-ए-हवा में देखना तुम वीरानियाँ
ये लाव-लश्कर तुम्हें कभी भी देंगे शिकस्त
रोयेगी फ़ितरत पे याद कर मेरी मेहरबानियाँ


अहबाब--लोगबाग,मित्र,समूह
रानाईयां--सौन्दर्य , फ़ितरत --स्वभाव

                                   शैल सिंह  

शनिवार, 27 जून 2015

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों

एक इंसान जो रोजी-रोटी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहा है ,असफलताओं ने उसे तोड़कर रख दिया है दुनिया उसे नकारा कहती है ,लोग उसपे तंज कसते हैं,उम्र ढलती जा रही ,जिम्मेदारियां बढ़ती जा रही, सभी कोशिशें नाक़ाम ,उसकी अंतर्व्यथा मैंने अपनी कविता में पिरोया है ,आगे....

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों 

मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता
लाचारियां भी बाज़ार में नहीं मिलतीं
अगर मिलती किस्मत किसी मंडी में
मूल्य अदा कर लाता उम्र नहीं ढलती ,

किसी की बेबसी पे मत हंसा किजिए
मजबूरियां कोई खरीदकर नहीं लाता
आप भी डरिये जरा वक़्त की मार से
बुरा वक़्त कभी यूं बताकर नहीं आता ,

अक़्ल का चाहे जितना धनी हो कोई
बिना तक़दीर के मन्जिल  नहीं पाया
बीरबल अक्ल का क्षत्रपति होकर भी
कभी बादशाहत का ताज़ नहीं पाया ,

जीने देतीं आशाएं ना तो मरने देतीं हैं
जाने क्यों रूठा है मुझसे मुक़द्दर मेरा
खुद के कंधे पे सर रख रो सकता नहीं
न गले खुद को लगा दिल बहलता मेरा ,

बेहिसाब ढो रहा जिंदगी औरों के लिए
जो मुझे चाहते ज़िंदगी बस उनके लिए
सुबह-शाम वक़्त उनपे जाया हूँ करता 
जीने का नाम जिंदगी है दूसरों के लिए ,

रिश्ते मोहताज नहीं होते हैं पैसों के जी
अमीर बना देते जरूर बिन पैसों के भी
कुछ रिश्ते मुनाफ़ा नहीं देते पर जीवन
अमीर बना देते पोंछ उदासी के सीलन ,

ओ अमीरों गर बनते हो धनवान इतना 
तो बेशक़ीमती मेरी बदनसीबी खरीदो
लौटा दो मेरी बेहतरीन बिखरी अमानत
बेचारगी,लाचारगी भरी दिल्लगी खरीदो ,

मुझे नकारा न समझो अरे दुनिया वालों
बस प्रारब्ध का मारा हुआ एक इंसान हूँ
उहापोह के चक्र में डूबता उतराता रहा
क्या पता तुम्हें कैसी हस्ती औ पहचान हूँ ।

                                     शैल सिंह


मंगलवार, 23 जून 2015

फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है

  •  फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है 


डर सताती रही ख़ौफ़ की हर घडी
फ़तह की चिट्ठी सीमा से घर आई है
मन मतवाला गज सा हुआ जा रहा
ख़ुशी चल एक विरहन के दर आई है ,

बिछ गए हर डगर पर पलक पांवड़े
उनके आने की जबसे खबर आई है
सरसराहट हवा की प्रिय आहट लगे
उनके कदमों की ख़ुश्बू शहर आई है ,

महकने लगी आज़ हर दिशा हर गली 
ज़िस्म का उनके चन्दन पवन लाई है
सांसें स्वागत में लीन आज़ पागल हुईं
कोई रोके ना पथ ज़िंदगी भवन आई है ,

उठे निष्पन्द वदन में भी अंगड़ाईयां
सूनी अँखियों में अंजन संवर आई है,
मन का हिरना कुलांचे भरने लगा है
मन समंदर में हलचल लहर आई है ,

भोली आशाएं कबसे तृषित थीं सनम
वही परिचित सा झोंका ज़िगर भाई है
चाँद,तारों,सितारों की बारात का बिंब
लगे नीले नभ से धरा पर उतर आई है ,

मुख मलिन दिखाता सदा रहा आइना
उसी में सौ रंग ख़ुशी के नज़र आई है
तार झंकृत नयन के इक झलक वास्ते
पथ निरख हर बटोही के गुजर आई है ,

सज कलाई में सावन की हरी चूड़ियाँ
बोल अधरों पर कजरी का भर लाई है
कितने कुर्बां हुए सुहाग वतन के लिए
गृह इस सधवा की रोली मगर आई है ,

                                    शैल सिंह





दो क्षणिकाएँ

                            ( १ )

देखिये गौर से अब गरीबी नहीं कहीं देश में
बहरूपियों की आदत गरीबी के चोले में है
अलहदी बना दिया है बी. पी. एल. कार्ड ने
उसपे आरक्षण की सौगात भी  झोली में है ,
असाध्य बीमारी हुआ है आरक्षण का कोढ़
बौद्धिकता का स्तर खतरे की टोली में है                        
जिन्हें मिल जा रहा सब कुछ बैठे बिठाये
उनमें आ गया नक्शा अहंकार बोली में है  ।

                 ( २ )



बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...