ऐ मेरे अल्फ़ाज़ों जा कह देना उनसे
करती भला किससे मैं जुदाई का शिकवा
दिखाई अंजुमन में फिर रूबाई का जलवा ।
लिखने को थी तो बहुत सारी दास्तां मगर
चन्द लफ़्ज़ों की एक ग़ज़ल लिखकर मैंने
महफ़िल में सुनाई जो जोश भरे अंदाज़ में
उनका अलहदा ग़ज़ल पे लहज़ा देखा मैंने ।
नज़्मों का पैमाना छलकना था बाकी अभी
हो गये बज़्म से ओझल झट नजरें चुराकर
हिज़्र की रात का दर्द था शायरी में पिरोया
बिन सुने हुये रुख़्सत सारी फ़िक्रें भुलाकर ।
सदियों की जुदाई तो दिया उन्हीं ने आखिर
वक्त तन्हा गुजारते क्यों मयखाने में जाकर
गुजर रही ज़िन्दगी बिना उन एक-एक दिन
करते परेशां क्यों मुझे मेरे ख़्वाबों में आकर ।
बिछड़ने का तहज़ीब भी तो ना आया उन्हें
जुदाई का दर्द बयां करती चेहरे की उदासी
ऐ मेरे अल्फ़ाज़ों जा कह देना उनसे,यकीन
तोड़ा उन्होंने सुकुन छीना मैंने दिन-रात की ।
शैल सिंह
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