अंबर उगल रहा है आग झुलस रही है धरती
सुलग रहे हैं सूरजदेव तपिश से देह दहकती ,
चिलचिलाती धूप में लपटें लू की गरम-गरम
सूर्ख हो भानु तेवर दिखलाते होते नहीं नरम ,
सिसकें ताल,तड़ाग कण-कण तपे जगत का
देख विरानी विकल हैं पनिहारिनें पनघट का ,
तरू के तन पे कड़ी धूप ने पीत वस्त्र पेन्हाये
टप-टप चूवे पसीना देह से सर से पांव नहाये ,
ना कटे पहाड़ सा दिन,ना ढले है जल्दी साँझ
ना कहीं हवा बतास,घर उगले भट्ठी सी आँच ,
जाने क्यों ऐंठे मेघराज जी कुपित हुए बैठे हैं
सरसाते नहीं धरा की छाती खफ़ा हुए ऐसे हैं ,
एसी,कूलर,पंखा भी राहत देने में मजबूर हुए
तन को तरावट देने वाले मंहगे हैं तरबूज़ हुए ,
तापमान बढ़ता जाता मानसून कब आयेगा
बंजर भूमि के वक्षस्थल अंकुर कब उगायेगा ,
ऐसा दुष्कर भ्रमण हुआ छुट्टियाँ बीतीं बेकार
गर्मी डाली विघ्न अवकाश में घर बैठे लाचार ,
कुदरत के सौन्दर्य से,जो हम खिलवाड़ किये
बाग,विटप,वृक्ष काट,जंगल से छेड़छाड़ किये ,
प्रकृति दे रही उसका प्रतिफल मिज़ाज बदल
तरसें गाछ के छांव को चलो करें आज पहल ,
फिर करें मिशन शुरू हम,नये पेड़ लगाने का
प्रकृति देगी अभयदान जगत को मुस्काने का ।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें