शुक्रवार, 9 जून 2023

गर्मी पर कविता

अंबर उगल रहा है आग झुलस रही है धरती
सुलग रहे हैं सूरजदेव तपिश से देह दहकती ,

चिलचिलाती धूप में लपटें लू की गरम-गरम 
सूर्ख हो भानु तेवर दिखलाते होते नहीं नरम ,

सिसकें ताल,तड़ाग कण-कण तपे जगत का 
देख विरानी विकल हैं पनिहारिनें पनघट का ,

तरू के तन पे कड़ी धूप ने पीत वस्त्र पेन्हाये
टप-टप चूवे पसीना देह से सर से पांव नहाये ,

ना कटे पहाड़ सा दिन,ना ढले है जल्दी साँझ 
ना कहीं हवा बतास,घर उगले भट्ठी सी आँच ,

जाने क्यों ऐंठे मेघराज जी कुपित हुए बैठे हैं
सरसाते नहीं धरा की छाती खफ़ा हुए ऐसे हैं ,

एसी,कूलर,पंखा भी राहत देने में मजबूर हुए 
तन को तरावट देने वाले मंहगे हैं तरबूज़ हुए ,
 
तापमान बढ़ता जाता  मानसून कब आयेगा
बंजर भूमि के वक्षस्थल अंकुर कब उगायेगा ,

ऐसा दुष्कर भ्रमण हुआ छुट्टियाँ बीतीं बेकार
गर्मी डाली विघ्न अवकाश में घर बैठे लाचार ,

कुदरत के सौन्दर्य से,जो हम खिलवाड़ किये
बाग,विटप,वृक्ष काट,जंगल से छेड़छाड़ किये ,

प्रकृति दे रही उसका प्रतिफल मिज़ाज बदल  
तरसें गाछ के छांव को चलो करें आज पहल ,

फिर करें मिशन शुरू हम,नये पेड़ लगाने का
प्रकृति देगी अभयदान जगत को मुस्काने का ।

सर्वाधिकार सुरक्षित 
शैल सिंह 
 

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