कब होगा आँगना में आगमन तुम्हारा
कुम्हला गए ताजे पुहुपों के वंदनवार
पथरा गये खंजन नैना करके इंतज़ार
बीते दिवस कित,बीति जाये कित रैन
चली गईं जाने कित आ आकर बहार ,
मुरझा गया कुन्तल केश सजा गजरा
विरक्त लगे चन्द्रमुखी चक्षु का कजरा
लुप्त हो गई लाली रक्तिम कपोल की
बरसे सघन नैन तर हो कंचुकी अंचरा ,
संभाला ना जाये धड़कनों का आवेग
कब आएगी मिलन की रुत का उद्वेग
कब होगा आँगना में आगमन तुम्हारा
सहा नहीं जाये व्याकुल उर का संवेग ,
हर्षा जा अविलंब उतप्त हृदय आकर
सर्दी के धूप सी नेहवृष्टि कर आस पर
सन्निपात व्याधि जैसी रुग्ण हुई काया
उड़ूँ कल्पना के उन्मुक्त आकाश पर ,
पलकों पे छाई रहती याद की ख़ुमारी
छवि अंत:करण बसी अनुपम तुम्हारी
गुनगुनाते,मंडराते भृंगों जैसे रात-दिन
ताड़ प्रीत की ख़ूब उत्कंठा तुम हमारी ,
अनकहे भाव अलंकृत शब्दों से करके
रचनाओं में सृजित करूं मर्म विरह के
अन्तर्मन की पीर संग्रह गीतों में करके
गाती फिरती नीर निर्जन दृगों में भरके ,
अवसादों से भरी काटूं विरह विभावरी
गाती भैरवी हूँ करती कलह आसावरी
ख़ुद से कर हुज्जत जुन्हाई भरी रैन में
निहारुं निर्निमेष चाँद जैसे कोई बावरी ,
आसावरी--सुबह की एक रागिनी।
सर्वाधिकार सुरक्षित
शैल सिंह
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