सोमवार, 4 जुलाई 2016

द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे जालिम

द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम

बर्बर आतंकों से दहला हुआ है विश्व भी
ख़ौफनाक सायों में गुजरे सहमी ज़िदगी

दहशतगर्दों के इरादों की अज़ीब दास्ताँ
इंसानियत को मार जी रहे कैसी ज़िदगी   
बनके अमानुष गिराते रोज ही क्रूर ग़ाज 
झुलसा रहे निर्दयता से दुनियावी ज़िदगी 

मौत का बरपा क़हर पसरा हुआ मातम 
सांसों के अहसानों पर जी रहे हैं ज़िदगी 
देख यह मन्जर मेरा होता है दिल घायल 
पी-पी के घूँट ज़हर का जी रहे हैं ज़िदगी ,

यह कैसी सनक है धुन,उपद्रव किसलिए
ऐसे खिलवाड़ से करोगे कबतक दरिंदगी
ग़र न ज़मीर जागा न फूटा सोता स्नेह का 
इक दिन तुम्हें भी लील लेगी तेरी दरिंदगी ,

हाय तुम्हारी हैवानियत को मैं क्या नाम दूँ 
जन्नतेहूर की ख़ाहिश बनाई सस्ती ज़िदगी  
द्रव तेरी आँखों का क्यों सूखा है रे ज़ालिम
तेरी बेरहमी बेगुनाहों की ले रही है ज़िदगी , 

जिस ख़ुदा वास्ते बरपाता बेख़ौफ़ तूं कहर
वही ख़ुदा देख सुन रहा है मेरी भी बन्दग़ी
कभी न कभी फूटेगा ये तेरे पापों का घड़ा
हज़म तुझे भी करेगी हर आहों की बन्दग़ी ।

                                शैल सिंह



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