शुक्रवार, 18 सितंबर 2015


'' हिंदी की महत्ता '' 

                                       
जय हिंदी ,जय भारत ,

      हिंदी पर लेख लिखने में अपार हर्ष और आनंद की अनुभूति हो रही है । हिंदी का सम्यक ज्ञान यदि मैं अपने लेख द्वारा थोड़ा भी जन मानस को दे सकूँ तो यह मेरे प्रयास की थोड़ी सी उपलब्धि होगी और अपनी लेखनी की कुशल शैली पर संतोष  और प्रसन्नता की अनुभूति भी होगी ।
            बताते चलें कि विश्व में ८० करोड़ लोग हैं जो हिंदी को अच्छी तरह समझते हैं ,और ६० करोड़ विश्व में हिंदी बोलने वाले लोग हैं ।१४ सितम्बर १९४९ को वैधानिक रूप से हिंदी को राजभाषा का दर्ज दिया गया । संबिधान में अनुच्छेद ३४३ में यह प्रावधान किया गया है कि देवनागरी के साथ हिंदी भारत की राजभाषा होगी । हिंदी के माध्यम से आज रोजगार तथा कारोबार व्यवसाय के बड़े बाजार भी तमाम सम्भावनाओं के लिए दस्तक दे रहे हैं । यह भी शुभ लक्षण है कि आज हिंदी को लेकर प्रचलित हीनता की ग्रन्थि से धीरे-धीरे हम उबर रहे हैं ,भाषा की मजबूती ही चहुँमुखी विकास का मूलमंत्र है ।हिंदी अब प्रौद्योगिकी के रथ पर सवार होकर विश्वव्यापी बन रही है । अपने मुनाफे के लिए विश्वस्तरीय कम्पनियाँ भी हिंदी प्रयोग को बढ़ावा दे रही हैं ,जैसे माइक्रोसॉफ्ट ,गूगल ,याहू ,आईबीएम तथा ओरेकल इत्यादि ।
        हिंदी केवल भाषा ही नहीं वरन भारतीयों की आत्मा है, भाषा ही अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, और वह भाषा है हिंदी, जो दिलों पर अपनी गहरी छाप छोड़ती है । हमारे प्रधानमंत्री जी भी हर जगह हिंदी में ही भाषण देते हैं चाहे देश हो या विदेश ,और हर जगह इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हो रही है । पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहारी बाजपेई जी ने भी संयुक्त राष्ट्र में हिंदी में ही भाषण दिया था ,जिसे आज भी लोग याद करते हैं ।अंग्रेजी बोलने वाले दुराग्रह के कारण हिंदी नहीं बोलते जबकि उन्हें अच्छी तरह हिंदी बोलने और समझने आती है , ये लोग `हिंदी फिल्में तो बड़े चाव से देखते हैं ,फिर हिंदी अपनाने में दुर्भाव क्यों । हमें अपनी हिंदी भाषा पर गर्व करना चाहिये ,सच्चे हिंदुस्तानी होने का स्वाभिमान होना चाहिए । 
        हिन्दी इस राष्ट्र की पुरातन संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है । हिंदी भारतीय समाज को जोड़ने की एक कड़ी है ,हिंदी देश की प्राचीन सभ्यता और आधुनिक प्रगति के बीच की एक मजबूत जंजीर है। हिंदी भारतीय चिंतन और संस्कृति की वाहक है ,यह भाषा हमारे पारम्परिक ज्ञान की खान है ,दुनिया के कोने-कोने में बसे लाखों करोड़ों प्रवासियों की हिंदी ही सम्पर्क भाषा है,हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान मिली है । हिंदी की समृद्धि से देश की समृद्धी है । इस राष्ट्र ने जब-जब किसी विपत्ति में स्वयं को घिरा हुआ पाया ,हिंदी भाषा ने चारों दिशाओं में स्थित विविध संस्कृति से युक्त राज्यों को एक सूत्र में पिरोकर राष्ट्र को संगठित किया एवं विपत्ति से राष्ट्र को बाहर निकाला । चाहे अंग्रेजों के विरुद्ध ४०० वर्षों तक चला स्वतंत्रता संग्राम हो या उसके पूर्व मुगलों और यवनों के अत्याचारों से आक्रांत १००० वर्षों का अविरल संघर्ष हो ,राष्ट्र भाषा हिंदी ने हर युग और काल में एक मंच प्रदान करने का अविस्मरणीय कार्य किया है ।किन्तु विगत वर्षों में इस भाषा को पल्ल्वित पुष्पित करने के मार्ग में जिस तरह की बाधाएं आई हैं ,या कह सकते हैं बाधाएं उत्पन्न की गई हैं,वह एक विचित्र स्थिति है अब तक विदेशियों ने हिंदी को पनपने से रोका ,राष्ट्रकवियों को राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत कवितायेँ करने से रोका ,तुलसी और मीरा के भक्तिपदों तक पर तरह-तरह के अंकुश लगाये गए ,वह इस बात का द्योतक था कि भारतीय संस्कृति की प्राचीन उन्नत परंपरा को नष्ट करने के उद्देश्य से विदेशियों ने ऐसा किया ,क्योंकि यही एक मार्ग था जिसके द्वारा वे इस राष्ट्र की एकता ,अखंडता को खंडित कर सकते थे । किन्तु यही कार्य जब स्वयं भारतीय करें ,और वह भी स्वातन्त्रयेत्तर भारत में ,तो इसका कारण कुछ अस्पष्ट सा प्रतीत होता है । अंग्रेजी भाषा सार्वभौमिक रूप से सर्वमान्य एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है एवं उसका अपना एक कार्यक्षेत्र है,क्षेत्रीय भाषाओँ की भी अपनी एक महत्ता है । किन्तु एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के अतिरिक्त हमारे पास विकल्प क्या है ? भारत के हर कोने में बोली समझी जाने वाली यह एक व्यापक साहित्य से युक्त मीठी और सहज भाषा है ,यह अलग बात है कि अपने स्वार्थ की अंधी परिभाषाओं में स्वयं को बद्ध कर कुछ लोग अलगाववादी मानसिकता के कारण हिंदी का विरोध आदिकाल से करते आये हैं ,किन्तु ऐसा करने वाले स्वयं जानते हैं कि यदि हिंदी का विरोध है तो उनके देश से दूसरे प्रदेश जाकर काम करने वाले लोगों का जीवन यापन असंभव हो जायेगा । अर्थात भाषा की व्यापकता का लाभ तो वे लेना चाहते हैं ,किन्तु इसका प्रतिफल देने की बजाय वे हिंदी के विरोध में ही स्वर मुखर करते हैं ।
     यह प्रश्न मात्र हिंदी दिवस तक ही सीमित नहीं है बल्कि एक शाश्वत सोच का विषय है कि हमें अपनी ही मातृभाषा से दोयम दर्जे के व्यव्हार की क्या आवश्यकता है ? विश्व की हर भाषा का ज्ञान हो इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं है ,किन्तु अपनी ही मातृभाषा की सतत उपेक्षा कर हम संस्कृत को कहाँ ले जा रहे हैं, मंथन का विषय है । अंग्रेजी समेत किसी भी भाषा में हमारी निष्ठा हो किन्तु वह हिंदी के प्रति उपेक्षा की कीमत पर कत्तई स्वीकार्य नहीं है। यह समय है जब हमें समझना होगा कि हमारा राष्ट्रध्वज मात्र कपड़े का टुकड़ा नहीं,वरन सम्पूर्ण राष्ट्र की आत्मा का प्रतीक है । हमारा राष्ट्रगान मात्र कुछ शब्दों का समंजन नहीं ,अपितु प्रत्येक भारतवासी के हृदय की गूंज है । इसकी महत्ता हमारे स्वयं के अस्तित्व से कदापि कम नहीं । अंग्रेजों ने इस महत्ता को समझा था इसीलिए सबसे पहले उन्होंने अपने पैर ज़माने के लिए भारतीय संस्कृति,स्थानीय बोलियों और राष्ट्रभाषा पर प्रहार किया और लोगों को अलगाववादी मानसिकता की धारा में बहाने का प्रयास किया । किन्तु अब स्थितियां विपरीत हो चुकी हैं । अब अपने ही राष्ट्र के मूर्धन्य उत्तरदायी लोग हिंदी की अस्मिता को सुरक्षित रखने के प्रति उदासीन हैं । अगर भारत की भाषाओँ को विधायिका ,कार्यपालिका व न्यायपालिका और साथ में शिक्षा व्यवस्था  खासकर उच्च शिक्षा व शोध ,वाणिज्य-कारोबार ,सूचना प्रौद्योकि आदि में स्थान नहीं दिया जायेगा तो हम कैसे उम्मीद करें कि दुनिया हमारी भाषा को सम्मान देगी । अपनी मूल संस्कृति का सर्वनाश करके किसी भी विकास की कल्पना करना मृगमरीचिका के सामान है । अतः यह प्रयास मात्र हिंदी दिवस तक सीमित न हो कर हर पल अनवरत चले ,तभी हिंदी दिवस की सार्थकता है । हिंदी दिवस हिंदी के लिए कुछ करने हेतु प्रारम्भ करने का दिन नहीं है ,वरन वर्ष भर हिन्दी के उन्नयन के लिए किये गए प्रयासों की समीक्षा का दिन है ।आइये हम भी अपने वर्ष भर के प्रयासों की समीक्षा करें एवं यदि हमारा प्रयास शून्य रहा है तो आज ही आत्मविश्लेषण करें कि अपनी संस्कृति व भाषा के महत्त्व को न समझकर हमने क्या खोया है ?
      ' हिंदी ' साहित्यकारों के मन की ,कलम की वह पूंजी है जिसके द्वारा वह जन-जन के मन की ,समाज की ,परिवेश की भावनाओं को दर्शाता है । यह कहने में अतिश्योक्ति नहीं इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आज के दौर में हिंदी साहित्य के शौक का भी पुनर्जन्म हुआ है । दुनिया में दिनोंदिन हिंदी का रुतबा बढ़ रहा है, आज तकनीकी प्रगति की संचार प्रकाशन संवाद की अनेकानेक खिड़कियाँ खोल रही है । वैश्विक मंच पर भारत की बढ़ती शाख ने कई देशों को हिंदी जानने व समझने को विवश कर दिया है ।
      हिंदी भाषा का प्रश्न मात्र एक भाषा के उत्थान-पतन का प्रश्न नहीं है ,हिंदी देश की पहचान ,उसके गौरव ,कला और सांस्कृतिक धरोहर से भी जुडी है । हिंदी का अर्थ है देश की अपनी भाषा में देश का आह्वान करना ,भारतीयों के लिए हिंदी से जुड़ना देश से जुड़ना है । यदि हिंदी जीवित है तो अपनी जीवन शक्ति से ,क्योंकि राजभाषा,मातृभाषा ,संपर्क भाषा की यह संजीवनी है । हिंदी में आगे उज्जवल भविष्य की संभावनाओं का आसार नजर आने लगा है ।वह समय जल्द ही आने वाला है जब हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा की मान्यता मिलेगी और हिंदी का मान-सम्मान विश्व फलक पर पताका की तरह लहराएगा ।
     बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ रहा है कि अपनी राष्ट्र भाषा हिंदी को हिंदी दिवस के रूप में मनाकर हम अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं । हिंदी दिवस मना लेना ,हिंदी पखवाड़ा मना लेना मात्र ही हिंदी के प्रति आस्था नहीं दर्शाता ,बल्कि अपनी राष्ट्र भाषा के लिए हमें प्रतिबद्ध होना चाहिए । राष्ट्रीय व्यव्हार में हिंदी को काम में लाना देश की उन्नति के लिए बेहद आवश्यक है । हिंदी भाषा एक ऐसी भाव तरंगिणी है जो सीधे आत्मा में उतरती है ,हिंदी विचारों की सुन्दर पोशाक है ,जिसके द्वारा हम अपनी अभिव्यक्ति को बहुत ही आकर्षक तरीके से दर्शा सकते हैं ।अब समय आ गया है जब हम नई पीढ़ी के लोगों को यह समझायें कि हिंदी में बात करने में उनमें हीन भावना नहीं आनी चाहिए ,अपनी भाषा पर गर्व करना चाहिए। अपनी भारतीय संस्कृति का दर्शन करायें ताकि ये पीढ़ी अपनी परम्पराओं से अनभिज्ञ ना रह जाय ,भारतीय मूल के लोगों को इस दिशा में गम्भीर प्रयास करना चाहिए ,कहीं ऐसा ना हो कि अंग्रेजियत के फैशन में एक,दो पीढ़ियों बाद ये लोग ये भी भूल जाएँ कि हमारे पूर्वज किस गांव या शहर से आए थे यदि घर में हिंदी को सम्मान नहीं देंगे तो विदेशों में हिंदी का सम्मान कैसे होगा ? यह एक अत्यंत ही गंभीर और विचारणीय विषय है ।   
       आप सबको हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं । जय हिन्द। 
                                                                         शैल सिंह 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

बह गए रेत से सपने सारे

    बह गए रेत से सपने सारे 


सोंधी ख़ुश्बू वातायन में बिखरा तो दी हो बरखा रानी

टूटही छान से रिस-रिस कर घर में टपक रहा है पानी

महलों के बाशिंदों को देती रिमझिम सावन की फुहार

हम गरीबन पर गाज गिराती भसकी छप्पर हुए उघार

जगह-जगह दरकाती धरती बेकाबू बरखा मूसलाधार

बंगलों की बगिया महका के गमलों में फूल खिलाई हो

यहाँ गुरबत की बखिया उधेड़ जंगल की बाड़ लगाई हो

बजबजा रही हो घाव मनमाने उद्दंड बारिश की बूंदों से

टीसों में भर दी हो सिहरन, तेज हवा साथ इन झींसों से

डगमग मंझधार में जीवन नैया नहीं यहाँ कोई खेवनहार

हम ही सहते हैं मार सूखा की हमें ही करती बाढ़ बेजार

कर्ज़ों में धँसी है हड्डी पसली घुन सा शरीर में लगा बुखार ,

आग उदर की भड़काती झोंपड़ी के चूल्हे की ठंडी राख

आँखें आसमान टकटकी लगा काटीं जाग के कारी रात

महलों के सब दिन लगें गुलाबी हमारे सब फीके त्यौहार

कजरी,विरहा भूल गए,आल्हा,उदल बिसरा गीत मल्हार

चाँदनी फिसलती रही रैन में बंगलों,मेहराबों,गलियारों से

छलक रही आँखें असहायों की टकराकर ढही दीवारों से

दूधिया चाँद में चमक रहे नहा घर बरखा की बौछारों से

हम बरसाती में दुबके पड़े डर के घिग्घी बांधे सियारों से

कहीं तो बालकनी से झाँके बत्ती कोई पहरों पे लेता साँस

बह गए रेत से सपने सारे भला बदहाली कैसे भरे हूँआंस ।

गात -- शरीर                                                    शैल सिंह


बुधवार, 2 सितंबर 2015

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं

अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं 


हमारा देश ' कृषि प्रधान देश ' के नाम से
सबको मालूम,विश्व विख्यात है
इसी देश के नौनिहाल अन्न उत्पाद
कैसे होता अज्ञात हैं ,
अहाते की छोटी सी फुलवारी में
पिछवाड़े की छोटी सी क्यारी में
तड़ी पड़ी थी धान की
बेटी सयानी पूछी मम्मा ये कैसी घासें
हरी-हरी परिधान की
मैंने बोला जरई है ये
बोल रही क्या होता है ये 
मैंने बोला रोपनी होगी
बोली रोपनी क्या होता है
मैंने बोला धान की रोपाई होगी
बोली धान रोपाई क्या होता है
मैंने बोला शर्म करो तुम
राईस ब्रीडर की बेटी हो
इसी घास को खाकर सब
मटियामेट कर देती हो
कृषि प्रधान देश में रहती हो
केवल खाती पीती सोती हो
रोपाई का मौसम है
निहुर-निहुर रोप रही थीं मूल्यानी
खेत ले जाकर उसे दिखाया
देख ले खेती होती कैसे अज्ञानी
जिन्होंने पढ़ते-लिखते कॅरियर बुनते
गाँवों को कोसों पीछे छोड़ दिया
क्या जानेंगे नवयुग के आज के बच्चे
जिनने सब रिश्तों से मुँह मोड़ लिया
जिनने खोली शहर में ऑंखें
सुख वैभव की जिन्हें मिली विरासत
उत्पादन कितने चरणों से होके गुजरता 
क्या जाने ये लोग इनकी ऐसी नफ़ासत
बेटी की सहेली और उसकी माँ ,
इक बार मेरे घर आई थीं
कैम्पस में घुमा-घुमा कर
बेटी ने उन्हें भी फील्ड दिखाई थी
धान की कई प्रजाति की किस्में
चिन्हित के लिए स्टिक में टैग लगाकर
छोटी-छोटी क्यारियों में अलग-अलग
सलीके से रोपी गयी थीं रो में सजाकर
देख अचंभित हुईं थीं माँ-बेटी 
विस्मय से फटीं रह गई ऑंखें
कह बैठीं इस संस्थान में
कितने करीने से उगाई गई हैं घासें
और हठात कह बैठीं सुन पारो
इन घासों पर तूं नंगे पांव
सुबह शाम टहलाकर
पावर तेरा कम हो जायेगा 
चश्मा आँखों से उत्तर जायेगा
सुनकर हँसी मैं ठठाकर
बेटी बोली आंटी ये घास नहीं है धान है
ये संस्थान अनुसन्धान की खान है
यहाँ वैज्ञानिक करते इसी पर काम है
धान से ही निकलता चावल
चावल ही विश्व का मूल खाद्यान्न है
कुछ गाँछों में धान की देखीं बालियाँ
पहली बार हुआ था दिग्दर्शन
बोलीं क्या धान ऐसा होता है
क्या चावल इसका ही है परिवर्तन
पहली बार फसल से हुआ दीदार था
ऑंखें हुईं थीं देख विस्फारित
दऊरी,दुकान है जिनकी रोजी-रोटी
जिनका जीवन विजनेस पर आधारित
क्योंकि दोनों थीं मारवाड़ी
कहाँ होती है उनके खेती बाड़ी
अफ़सोस ये भारत देश के वासी हैं
कृषि प्रधान देश के निवासी है ।

मूल्यानी ---खेतों में काम करने वाले मजदूर
तड़ी ,जरई ----धान की नर्सरी
                                     
                                     शैल सिंह 

सोमवार, 31 अगस्त 2015

खुद को सेंक दीए की लौ में ,

सींकती रही दीए की लौ में 


अम्मा क्यूँ नहीं मुझको भी तूने 
भैया सा घर में अधिकार दिया 
हक़ मेरे हिस्से का काट-कपट 
भैया को ही केवल प्यार दिया ,

मुझको भी गर ' पर ' मिलता 
उड़ती-फिरती मुक़्त गगन में 
माँ डाल सूरज के शहर बसेरा 
सुर्ख़  सी उगती नील गगन में ,

स्वप्न सुनहरे ऊँचे-ऊँचे बूनती
लिखती नित नई-नई इबारत
दुनिया को दिखलाती क्या हूँ 
किसमें हासिल मुझे महारत ,

मुक़्त पखेरू सी फ़िजां-फ़िजां
माँ विचरण करती जी भरकर
साँझ,भोर का डर,भय ना होता 
चलती बेख़ौफ़ राह पर डटकर ,

चील,कौओं की घूरतीं निग़ाहें 
शीशे से वदन को बेंधती ऑंखें
कंचन तन ढाला कांच में क्यों 
कुतर दी गईं उड़ानों की पाँखें ,

बाबुल के घर जन्मी पली बढ़ी
ससुराल पिया का घर कहती 
है कौन सा घर मेरा बतलाओ
माँ कहाँ बता मेरी निज धरती ,

कोई  भी मोल ना जाना मेरा 
तोली गई जाने कित रूपों में
जली दीया सी सबके लिए मैं
खुद को सेंक दीए की लौ में ,

फरियाद करूँ किस अदालत 
कैसी कुदरत तूने रची कहानी
क्यूँ देकर ऐसी अनमोल ज़िंदगी  
दिया आँचल में दूध दृग में पानी ।

                                     शैल सिंह 




रविवार, 30 अगस्त 2015

हौसलों का दीप ना बुझने पाये

हौसलों का दीप ना बुझने पाये 


भारत माँ के वीर जवानों तेरी जननी आज ललकारे
बहा दो खून की होली जला दो जगमग दीप सितारे ,

रंग-रंग में तेरी जमा है इस धरती का खून पसीना
स्वराज्य करो सपूतों खड़ी रहूँ मैं गर्व से ताने सीना
सर झुके न बैरी के आगे मेरी अभिलाषा वीरों प्यारे
बहा दो …… ।

इस पावन धरती पर गैरों का पदचाप न पड़ने पाये
ओ वीर सिपाही तेरी धरती माँ न कभी तड़पने पाये
ऋण अदा करना गौरव से भर आँचल माँ का दुलारे
बहा दो  .......।

कभी ना मानना हार पुत्रों ना पग पीछे कभी हटाना
स्वतन्त्र रहे ये भारत भूमि दुश्मन के छक्के छुड़ाना
जलता रहे निरन्तर हौसलों का दीया ना बुझने पाये
बहा दो  ….…।
                    शैल सिंह 

'' काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ''

काश कलम ग़र होती मेरी तलवार 

मन में जब-जब जितने फूटे ज्वार
बस हम बस कागज का पेट भरे
कितने लाचार,मजबूर ,विवश हम
जबकि खूँ में गर्मी जोश में है दम
कैसे करें क्षरण इन उल्लुओं के उत्पात
जो नहीं समझते सीधी-साधी बात
छल ज़मीर में इनके संस्कार बदजात
तभी तो करते बार-बार विश्वासघात
हमने बस ईमान का पाठ पढ़ा
और शांति,सद्भाव का यज्ञ किया
नैतिकता में बंधे रहे ,संविधान का मान किया
ताजीवन दूध पिलाते रहे संपोलों को
और खुद बार-बार विषपान किया
कितने हुए शहीद सपूत यहाँ के
कितने अभी और शहादत देंगे लाल
अभी और कितनी बार सहेंगे वार
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
हौसलों को मसि बनाकर
शब्दों को देती तीखी धार
{ दाँत पीसकर }कर देती बदज़ातों का बंटाधार
कोई अलगाववाद की बात करे
और कोई मांगे हमसे मेरा कश्मीर
सीने पर बैठकर दल रहे मूंग
छुपकर घाव कर रहे गम्भीर
अन्न,जल ग्रहण करें इस धरती का
रुबाई गायें पापी पाकिस्तान की
हमारे प्रेम सौहार्द को मटियामेट कर
जाल बुनें बैठकर गोद में हिंदुस्तान की
कोई अल्ला-मुल्ला के नाम पर
दे रहा समस्त जगत को पीर
काश कलम ग़र होती मेरी शमशीर
ऑंखें निकाल हाथ पे रखती,देती सीना चीर
कुछ कठमुल्लों कुछ बद्दिमाग़ों ने
कर दिया है क़ौम का नाम बदनाम
क्षिक्षा,समृधि,प्रगति की बातें दरकिनार कर
करते फिर रहे कत्लेआम सरेआम
अकल पर परदा डालकर अपने
कर दिया है विश्व का चैन हराम
विफल होती जा रही सभी वार्ता
अपमानित होते सभी प्रयास
घुसपैठिये राह हैं ढूँढ निकालते
पहरों के चाहे जितने लगे कयास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार
और शब्द होते जैसे वृक्ष कपास
फाग सी विखेर देती रुई के फाहों को
विश्व में फैला देती नई उजास
काश कलम ग़र होती मेरी तलवार ।

                                                शैल सिंह 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

'' अमर अब्दुल कलाम ''

  अमर अब्दुल कलाम 

तेरी सच्ची देशभक्ति तिरे किरदार को सलाम
सफ़र के नेक इरादों वाले तहे दिल से परनाम  ।

क़बा-ए-जिस्म छोड़ कर कब तस्वीर बन गया
हर जुबां पे अपने नाम का वो कलमा गढ़ गया
कली,फूल रो रहे बिछड़ तुझसे माहताब सितारे
समां,फ़िजां सदायें दे रहीं तुझे अहबाब तुम्हारे ।

हिन्दू चाहिए ना हिन्दुस्तान को मुसलमां चाहिए
तुझसा नेक दिल हिन्दोस्तां को रहनुमां चाहिए
जिसे जाति,घर्म ,किसी मज़हब से ना हो राब्ता 
तेरे रूपों में ढला तुझसा जुनूनी इन्सान चाहिए ।

जीस्त सरफ़रोश कर दिया जिसने देश के लिए
उसके कितने शाहकार हुए ख़ुलूस,वेश के लिए
जगी आँखों में जिसने ख़्वाब के जुग़नू जला दिए
सपने वो नहीं जो देखो नींद में,ऐसे गुर बता दिए ।

जो थका,हारा,न रुका कभी,रहा ख़ाब को जीता
कंकरीली,पथरीली,पगडंडियाँ सदा रहा चलता
कभी बुझ न सकेगी जो उसने दिखाई है रौशनी
उसकी दिखाई राह पर चलेगा ये मुल्क़ है यकीं ।

जिसकी ज़िंदगी का सरापा देश का विकास था
जिस मिसाईल मैन ने रचा अद्द्भुत इतिहास था
जिस व्यक्ति की हस्ती-ए-मालूम में सादगी भरी
शख़्सियत औ शोहरा  जहने-रसा  सोने सी खरी ।

तसव्वुरात से लबरेज रहा तेरे हयात का सफ़र
बहिश्त को सिधारा हैरां हैं सभी सुनकर ये खबर
तेरे ही नक़्शे-कदम पे चलेगा देश का हर नौजवां
आने वाली नस्लें करेंगी पूर्ण तेरे सपनों का कारवां  ।

साधा अमूल्य जीवन खुद से लड़कर हर कदम
शील,ध्यान,ज्ञान,प्रज्ञा प्राप्ति में सदैव रह निमग्न
जो निष्ठावान रहा मिशन की कामयाबी के लिए
किश्ते-दिल जिसका तड़पा मातु भारती के लिए  ।

तिरे कारे-हुनर ने ख़ल्क़ में पहचान दी कलाम
मज़हबों की पटे खाई बने ग़र हर कोई कलाम
तेरी सच्ची देशभक्ति तिरे किरदार को सलाम          
सफर के नेक इरादों वाले तहे दिल से परनाम  ।

शब्द अर्थ ---
अहबाब--लोग,बाग़,मित्र , क़बा-ए-जिस्म--जिस्म रूपी वस्त्र  ,
जीस्त--ज़िन्दगी , शाहकार -प्रशंसक , ख़ुलूस--सरल स्वभाव ,
हस्ती-ए-मालूम --वास्तविक जीवन , सरापा--सब कुछ ,
जहने-रसा--मस्तिष्क तक , हयात--जीवन , बहिश्त--स्वर्ग ,
ख़ल्क़ --संसार , किश्ते-दिल --ह्रदय भूमि
                                                                      शैल सिंह








बे-हिस लगे ज़िन्दगी --

बे-हिस लगे ज़िन्दगी -- ऐ ज़िन्दगी बता तेरा इरादा क्या है  बे-नाम सी उदासी में भटकाने से फायदा क्या है  क्यों पुराने दयार में ले जाकर उलझा रह...