संदेश

ऐ मेरे अल्फ़ाज़ों जा कह देना उनसे

करती भला किससे मैं जुदाई का शिकवा  दिखाई अंजुमन में फिर रूबाई का जलवा । लिखने को थी तो बहुत सारी दास्तां मगर  चन्द लफ़्ज़ों की एक ग़ज़ल लिखकर मैंने  सुनाई जो महफ़िल में जोश भरे अंदाज़ में उनका अलहेदा ग़ज़ल पे लहज़ा देखा मैंने । नज़्मों का पैमाना छलकना था बाकी अभी  हो गये बज़्म से ओझल झट नजरें चुराकर  हिज़्र की रात का दर्द था शायरी में पिरोया बिन सुने हुये रुख़्सत सारी फ़िक्रें भुलाकर । सदियों की जुदाई तो दिया उन्हीं ने आखिर  वक्त तन्हा गुजारते क्यों मयखाने में‌ जाकर  गुजर रही ज़िन्दगी बिना उन एक-एक दिन  करते परेशां क्यों मुझे मेरे ख़्वाबों में आकर । बिछड़ने का तहज़ीब भी तो ना आया उन्हें  जुदाई का दर्द बयां करती चेहरे की उदासी ऐ मेरे अल्फ़ाज़ों जा कह देना उनसे,यकीन तोड़ा उन्होंने सुकुन छीना मैंने दिन-रात की । शैल सिंह  सर्वाधिकार सुरक्षित 

गीत कविता

राह तकते कटे दिन रैन  तुम नहीं आए पथरा गईं ॳॅंखिया जब भी मेरी बस्ती से गुजरा कोई राही दौड़ झांकती झरोखा दिखते तुम नाहीं बीते लमहों को याद कर रोईं बहुत ॳॅंखिया तुम नहीं आए पथरा गईं ॳॅंखिया । मुरझा गया मनमोहक जूड़े का गजरा बह गया ऑंसू़ संग आंखों का कजरा  गालों की सुर्खी पर खींची रेखा कारी रंगिया तुम नहीं आए पथरा गईं ॳॅंखिया । थाल फूलों से सजाया अगवानी को तेरे मेंहदी हाथों में महावर पांव नाम का तेरे  पिया किससे कहूं कैसे हिया की गूढ़ बतिया  तुम नहीं आए पथरा गईं ॳॅंखिया । पता ना ठिकाना दिये लिखूं कैसे पतिया आवन को कह गये निकली झूठी बतिया बीते करवट बदलते रातें भींग जाती तकिया  तुम नहीं आए पथरा गईं ॳॅंखिया । शैल सिंह  सर्वाधिकार सुरक्षित 

निस्पंद से पड़े

हे कर्णधार साईं नाव मंझधार पार लगा दो दीन,हीन,मलीन पे महिमा बरसा अपार दो । कितनी कीं याचनायें सरकार तेरे दरबार में  कभी प्रार्थनाओं का तुझपर असर ना हुआ क्या कमी थी प्रभु भक्ति,भाव,अर्चनाओं में  के मेरी वेदनाओं का तुझको खबर ना हुआ । दिन रात तेरे अक्स को उतार कल्पनाओं में  पूजती रही मन ही मन शाश्वत भावनाओं में  तुम पूजा ना सके साध ज़िन्दगी की एक भी  क्या कमी रही बताओ ना मेरी साधनाओं में । सुधि लोगे कब स्वामी कब बरसाओगे कृपा  सर्वव्यापी भगवन हरोगे कब पीर,कष्ट,व्यथा कर दो प्रभामंडल से अपने संतृप्त चित्त प्रभु कब प्रसन्न हो बहाओगे संभावनाओं की दया । क्या करें तुझको अर्पण करूं कैसे स्तुति तेरी  निस्पंद से पड़े ना सुनते क्यों कोई अर्जी मेरी  तुम्हीं सृष्टि के रचयिता तुम भाग्य के विधाता  तुम ही सर्वशक्तिमान चाहे जो करो मर्ज़ी तेरी । शैल सिंह  सर्वाधिकार सुरक्षित 

ग़ज़ल

बिना मेरे कैसे वक़्त गुज़ारोगे मुझे छोड़ने के बाद  दिल को क्या कह बहलाओगे मुझे छोड़ने के बाद । तुझ से कौन करेगा मोहब्बत मुझे छोड़ने के बाद  किसी और का न हो पाओगे मुझे छोड़ने के बाद  जो मेरी ऑंखों में अश्क़ों का तोहफ़ा दिया तुमने  तरस जाओगे तुम चाहत को मुझे छोड़ने के बाद । तेरा अपराध उजागर हो जायेगा मुझे छोड़ने के बाद  कैसे तोहमतों को करोगे बर्दाश्त मुझे छोड़ने के बाद  भींगाओगे तन्हाईयों में बालिश याद कर वफ़ाएं मेरी  बस नावाकिफ़ तुझे लोग मिलेंगे मुझे छोड़ने के बाद । मुझ सा किरदार नहीं पाओगे मुझे छोड़ने के बाद  हो जाओगे बदनाम ख़ल्क़ में मुझे छोड़ने के बाद  ठुकराया जिनके लिए दिया दर्द की सजा मुझको  मुझसा हमसफ़र नहीं पाओगे मुझे छोड़ने के बाद । दिल लगाना खता थी मेरी जाना मुझे छोड़ने के बाद  लब से हटा ना पाओगे नाम मेरा मुझे छोड़ने के बाद  जब भी झांकोगे खोल दरीचा दिल के आशियाने का  कोई दूर तलक नजर ना आयेगा मुझे छोड़ने के बाद । ख़ल्क़---दुनिया बालिश---तकिया या मसनद नावाकिफ़---अनजान या अजनबी दरीचा---खिड़की या झरोखा शैल सिंह  स...

शब्दों के मुक्ताहार

तुम ही तुम आये नज़र जब भी निहारा चेहरा आईने में  कैसे झपकायें नैन बैठे तन के नयनपट के शामियाने में  सजा रखा करीने से ख़तों का ख़ज़ाना दर्द की बस्ती में   सहेजती रही ख़्वाबों की वरासत लफ़्ज़ों के तहखाने में । बेजान अरसे से पड़ी थी दिल की जमीं तुम मुस्कुराये और तबियत हरी हो गई प्रेम का हल चला नैन किये उर्वरा जमीं पहले से और भी मुसीबत खड़ी हो गई । निगाहों ने जाने क्या ऐसा पयाम दे दिया  कि वह दिल की सरहद के पार आ गया लगा पैमाइश करने घर की दहलीज़ का आहिस्ता-आहिस्ता मन के द्वार आ गया । मेरे मन समन्दर में तूफ़ान आया कि नहीं  मेरे मुखड़े को उसका मुसल्सल निहारना  पलकों के तट पर बैठ सोचता आठों याम  कैसे यंत्र से है मुहब्बत का महल तराशना । जब जब एहसासों के समन्दर में सैलाब आया ख़्यालों की बस्ती में यादों ने कोलाहल मचाया तूलिका अंकवार दे दी व्याकरण के विस्तार से  वक्ष बेंधती गई वरक़ का शब्दों के मुक्ताहार से । मेरे तन्हाइयों की महफ़िल अब गुलज़ार रहती है  बिखरी ख़्वाबों के असबाबों की भरमार रहती है  ऑंखों की नींद चुरा जिनसे तुम व्यापार करते थे...

सम्भावनाओं का घर

मनोमस्तिष्क में बस गया है एक गांव  एक बेचैनियों का एक स्मृतियों का घर एक शिकायतों का एक मोहब्बतों का घर ऑंखों की दहलीज़ पर एक ऑंसुओं का घर एक मिलन के अविस्मरणीय निशानियों का घर एक तलाश का घर कुछ अनकहे दास्तानों का घर एक आहटों का घर खिलखिलाती महफ़िलों का घर  एक उदासीयों का घर एक टीसती खामोशियों का घर  कभी आओगे बीते लम्हे याद कर,सम्भावनाओं का घर कभी तो गुफ्तगू करने तुम भी आओ ना इन गांवों के घर।  शैल सिंह  सर्वाधिकार सुरक्षित 

कुछ उन्मुक्त छन्द

छलकता जब भी प्रेम के एहसास का पैमाना  शब्दों के मोती से कर लेती दिल्लगी मनमाना कविताएं बन जाती मेरे उक्तियों की संजीवनी  शायरी में उतर आता उर के उद्गार का आईना । मेरी कविताओं की बुनियाद तुम हो प्रिये  कविताएं अनकही बातों की संवाद प्रिये  दर्द ने जब भी शरारत किया जज़्बातों से  लेखनी ने शब्द-शब्द में अनुवाद कर दिए । मिलन के वो सुनहरे पल सांझ सुरमई  तेरे भुजपाश में जब लाज से दुहरी हुई  हया का पर्दा हटा जो चूमा कपोलों को  मन कलिका खिली शर्म से हुई छुईमुई । क्यों बहार बन आये तुम जीवन में मेरे  लेना नहीं था जब सातों वचन संग फेरे  क्यों किये उर वीणा के तंत्रों को झंकृत  दक्ष नहीं साज में जब तरन्नुम क्यों छेड़े । क्यों उमड़-घुमड़ कर बादल के जैसे  आषाढ़ सा मन का आँगन छू कर के मन के मोर की बढ़ाकर के विह्वलता लौट गये घहराकर तरसा बिना बरसे । धड़कन बनके धड़कते हो तुम हृदय में  जी रही ऑंखों के सपने संजो सांसों में  जब से देखी हैं तेरी सूरत इन ऑंखों ने  दूसरी बसी ना कोई मूरत इन ऑंखों में । जब भी खटकता सांकल दहलीज़ का  लगता...