गुरुवार, 15 जुलाई 2021

इन्तज़ार और याद पर कविता " आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "

" आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा "


सूरज की तप्ती दोपहरी चाँदनी सी शीतल रात 
बीतीं जाने कितनी भोर संध्याएँ बीते कित मास ।

अब तो हो गई है इंतिहा आँखों के इन्तज़ार की
लगता बिना तेरे मैंने कितनी शताब्दी गुजार दी
हर साँझ जला रखते दृग,पथ उम्मीदों का दीया
बुझा अश्क़ों की वर्षात से मिज़ाज को क़रार दी ।

निश-दिन भींगती तेरी यादों में बरसात की तरह
वह कशिश कहाँ बरसात में तेरी यादों की तरह 
यादें भी क्या बला  रखतीं बैर आँखों की नींद से
तोड़ देतीं दिला यादें निर्दयी यादों को उम्मीद से ।

मुहब्बत में बिछड़ने का ग़म बस मुझे होता क्यूँ
दर्द अनुभूतियों का मुझ सा नहीं तुझे होता क्यूँ
जैसे बिताती बेचैन रातें बिन तेरे तन्हाईयों में मैं
वैसी ही बेचैनी का अहसास नहीं तुझे होता क्यूँ ।

कभी बोये थे मेरी आँखों में तुम्हीं ख़्वाब सुनहरे
कभी मंडराए थे भ्रमरे सा कैसे भूले साँझ सवेरे 
अपने ज़ुल्फ़ के पेंचों में कर गिरफ़्तार बाज़ीगर
कैसे किया देख हाल आके डाल आँखों में बसेरे ।

कभी बन पवन का झोंका  खेल जाते गेसुओं से  
कभी कर जाते पलकें नम बरस नैन के मेघों से 
जाने किस भरम में रखी संजो यादों की सम्पदा
बिसराने का करूं यत्न  रूठ दिल नहीं धड़कता ।

क़ाश तेरे फ़ितरत सी होतीं यादें भी तेरी बेवफ़ा
आँखों के आँगने उतर ना देतीं जागने की सज़ा
दिल के चौखट न जाने क्यूं लगा न पाती बंदिशें
कभी आओगे इसी आस में खोल रखी दरवाजा ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                   शैल सिंह

शनिवार, 19 जून 2021

कविता " यादें बचपन की "

                   " यादें बचपन की "


अभी तक है घुली नथुनों में सोंधी ख़ुश्बू गांव की   
याद छत पे सोना कथरी बिछा धूल भरे पांव की ।

बारिशों में भींगी मस्ती क़श्ती कागज की बहाना 
गर्मियों की चाँदनी रातें बिछी खाटें खुला आँगना
शरारतें,नदानियां,रुठना,मनाना खिल्ली ठिठोली
याद बालेपन का घरौंदा साथ सखियों का सुहाना ।

खांटी दूध,दही,छाछ,अहरे की दाल चोखा भउरी
ज़ायके घुघुनी रस के रसदार तरकारी में अदउरी
लुत्फ़ खीरा ककड़ी का मकई के खेतों का मचान 
भूली नहीं मेलों की चोटही जलेबी,लक्ठा,फुलउरी ।

कारे मेघा पानी दे घटा से बरस जाने की मनुहार 
माटी में लोट कहना,साथियों के संग की तकरार 
आलाप आल्हा-ऊदल का रासलीला,मदारी खेल
कहाँ गईं वो चीजें  बाइस्कोप,नौटंकी की झन्कार ।

दूसरों के बाग़ों से टिकोरा तोड़ना भरी दुपहरी में 
झगड़े कुट्टी,मिट्ठी करना उंगलियों की कचहरी में
अब क्यों बचपन जैसी सुबह और शाम नहीं होती
मस्ती,हुड़दंग,होंठों पर अल्हड़ मुस्कान नहीं होती ।

हमजोली संग मिल गुड्डे-गुड़ियों का व्याह रचाना
आँखों में जीवन्त है आज भी बचपन  का जमाना
चिंता ना फिकर रंज ,द्वेष कितने न्यारे थे वो दिन 
लौटा दे कोई बचपन दे-दे वो सामान सब पुराना ।

अहरे--उपले और गोहरे की आग 
अदउरी--बड़ी,कोहड़उरी
सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह

सोमवार, 17 मई 2021

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता पर कविता "

" विश्वव्यापी व्याधि पर कविता "



ऐसी विभीषिका से  वबाल मचाई हो कॅरोना
कैसी विश्वव्यापी व्याधि तूँ दुसाध्य सांस लेना ।

किन गुनाहों की मिल रही सज़ा ज़िन्दगी को
कि अब ज़िन्दगी ही दे रही दग़ा ज़िन्दगी को
हवाएं भी खफ़ा हो ज़ुल्म ढा रहीं हैं सांसों पर 
एवं ख़तरनाक हो क़हर ढा रहीं हैं आँखों पर ।

जाने कब तक चलेगा मौत का ये सिलसिला
तुम्हारी बेग़ैरत करतूत से ज़िन्दगी को गिला
दुनिया सहम गई है देख जनाज़ों का कारवां 
शंकित शवों की संख्या से मरघट भी पशेमाँ ।

हो वैरी का जैविक वार या प्रकृति हुई ख़फ़ा
कि महाप्रलय पे तुले धर्मराज कर रहे ज़फ़ा
विस्मित हूँ सांसों के ,अकस्मात् थम जाने से
सृष्टि बेबस निरूपाय उचित उपचार पाने से ।

जो किया कल के लिये संचय न काम आया
कांपें स्वजन भी छूने से ऐसी अस्वस्थ काया
कांधे भी मुनासिब नहीं बेसहारा सी मृत देह
थरथराती देख रूह औषधालयों पे भी संदेह ।

लिपट कर भी ना रो पाएं ऐसे छटपटाते प्राण
बेअसर उपाय सारे जो भी सभी ने किये त्राण
चाँदी हो गई हरामख़ोरों की इस महामारी में
ज़िन्दगी,धन से गये मज़लूम दुर्बल लाचारी में ।

पशेमाँ--शर्मसार,लज्जित
त्राण--रक्षा,बचाव

सर्वाधिकार सुरक्षित
                शैल सिंह

गुरुवार, 6 मई 2021

कोरोना की तीसरी लहर

कोरोना की तीसरी लहर 


और कितना प्रकोप ढाओगी 
कितनी वर्जनाएं लगाओगी
कोहराम मचा है चारों ओर 
तीसरी लहर का और है शोर ,

कितने घोंसले उजड़ गये 
कितनों के सपने बिखर गये
कितनों का संबल छीन लिया 
कितनों को अदृश्य हो लील लिया ,

सारी कायनात लग रही है विरां 
छेद रही मर्मभेदी करूणा है सीना
उन्मुक्त हँसी अधरों से गायब 
सब कुछ जैसे लग रहा अजायब ,

किस अमोघ अस्त्र से होगी पस्त 
सारी दुनिया हो गई है तुमसे त्रस्त
कौन सा दिव्यास्त्र चलाया जाये
आतंकित,भयभीत सभी दिशाएं ,

फ़जाओं में पसरा गहरा सन्नाटा 
थमा-थमा कोलाहल दे झन्नाटा
आवागमन पर छाया घोर कुहासा
भाग रहे सब जब कोई खांसा ,

निस्तेज हुई है कांति मुखों की
ऐसा वज्र गिरा दु:खों की
प्रगति पर विराम लगा दी
सबका प्रवेश वर्जित करा दी ,

कितना बरतें एहतियात हम
कितना सतर्क रहें बता हम
किसकी कितनी सुनें सलाह
क्या हालत हो गई या अल्लाह ,

जी मिचले कड़वा काढ़ा पी भाई
नहीं होती कारगर कोई दवाई
किसके सम्पर्क से रहें अछूत
लगे ज़िन्दे इंसान भी कोई भूत ,

कैसा अज़ाब ढाई हो कोरोना
ऊफनवा रही हो जाबा पहना
दहशत से डरा-डरा है मन
किस निरोध से हो तेरा शमन ,

क्या निस्तारण तेरा तू ही बता
क्या रहेगी जहाँ में ऐसे ही सदा
मानवीयता पर भी ग्रहण लगा
रहा ना अब कोई किसी का सगा ,

तेरे चक्रव्यूह को भेदना होगा
तेरे दु:साहस को तोड़ना होगा
ग़र तुझसे बची रह गई ज़िन्दगी
विश्व कल्याण लिए करेंगे बन्दगी ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
                  शैल सिंह

मंगलवार, 4 मई 2021

याद पर कविता " पराई हो गईं हैं सांसें मुझसे "

मत ख़लल डालो ज़रा ठहरो 
रुको सांसों चलो धड़कनों आहिस्ता 
खटका रही कुण्डी दिल की,किसी की याद
कहीं इस शोर से रूठ जायें न मेरे ख़्वाब आहिस्ता । 
 
कैसे करें सरेआम शरम आये
लगा चाहत का रोग बसे तुम रूह में
दवा,दुआ ना आये काम कैसी व्याधि है यह  
लगे श्वांसों की ध्वनि बैरन जबसे तुझमें मशरूफ़ मैं । 

वे मधुर कम्पन छुवन के तेरे 
करें झंकृत जब याद आ तन-मन को 
खिल उठे उर कचनार सा जैसे खड़े सम्मुख 
ना जाने कैसा रिश्ता है जो महका जाता चमन को ।

परायी हो गईं हैं साँसें मुझसे 
धड़कन बन धड़कने लगे तुम जबसे
नज़र आते नहीं नयनपट पर रैन बसेरा कर 
मुस्कुरा निद्रा मेरी आँखों से चुराने लगे तुम जबसे । 

सर्वाधिकार सुरक्षित
                  शैल सिंह




शनिवार, 24 अप्रैल 2021

'' कोरोना पर कविता ''

कोरोना पर कविता 

हर ओर है पसरा सन्नाटा 
चहुँओर ख़ौफ़नाक है मंज़र 
मची तबाही शहर गली में 
इक वायरस ने घोंपा है ख़ंजर , 

कारागृह हो गया है घर 
क़ैदी भाँति क़ैद हुए सब घर में 
ग़ुम हुईं रौनक़ें बाज़ारों की 
फासले बना रह रहे सब डर में ,

विरक्ति सी हो रही चीजों से 
नीरस सा हो गया है मन 
इंसा इंसा के काम ना आता 
धरा रह जा रहा दौलत औ धन , 

ऐसा संक्रामण का रूप भयंकर 
हर व्यक्ति संदिग्ध सा लग रहा 
मानवों को लील रही महामारी  
श्मशान लाशों के ढेर से पट रहा ,

अलसाई सी सुबह लगे 
लगे तन्हा-तन्हा सी शाम 
सांसों की डोर है डरी-डरी 
अवरूद्ध पड़े जा रहे सब काम , 

छाई सर्वत्र उदासी ख़ामोशी 
भयावह सी लगती नीरवता 
कब काल आ भर ले आग़ोश में 
हर पल इस संशय में है कटता ,

देख दारुण सी व्यथा जगत की 
करुण क्रन्दन सुन कर्ण फटे 
ऐसी दहशत फैला रखी कोरोना 
कि अपने भी सम्पर्क से परे हटें ,

ऐसी आपदा विपदा में भी 
कोई किसी के काम ना आये 
असहाय,लावारिश सी लगे ज़िंदगी 
मौत की सौदाग़र नित पांव फैलाये। 

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                शैल सिंह 
 
 

 






मंगलवार, 6 अप्रैल 2021

प्रेम पर कविता '' चाँद नभ का ना बन सताओ मुझे ''



किस क़दर डूबी हूँ प्यार में मैं तेरे 
हो कर वाक़िफ़ मगर हो यों बेख़बर 
क्या जानो मज़ा इश्क़ के नशे का  
दिखता सूना हृदय भी रंगों का नगर ।

मेरे हर जिक़्र में नाम लब पर तेरा 
इस तरह तुम बसे हो जाँ औ ज़िग़र
संग मेरे सफर में चलो तुम अगर
हसीं हो जायेगा हर कदम हमसफ़र ।

ग्रन्थ लिख डाले मैंने कई प्यार के 
पढ़कर भी अगर देख लेते भर नज़र 
करते मंथन अगर वेदना सिंधु का  
नैना बह जाते तेरे भी झर-झर निर्झर ।

बीती रातें कई मेरी करवटें बदल 
नर्म बिछौने पर ना नींद आई रात भर
पीर का हिस्सा बन विरह में पगी 
मैं बरसात में भी जलती रही उम्र भर । 

पतझड़ सा जीवन चमन हो गया 
बहारें आईं गईं कितनी रहीं बेअसर 
चाँद नभ का ना बन सताओ मुझे 
चाहत आओ न नैनों के आँगन उतर । 

मैंने माना कि मौन प्रेम मेरा रहा 
निठुर तेरी भी रही प्रीत ऐ मीत मगर 
कृष्ण के मीरा सी मैं दीवानी बन
हुई लहरों से टकराती नैया सी जर्ज़र ।

किस क़दर डूबी हूँ प्यार में मैं तेरे 
हो कर वाकिफ़ मगर हो यों बेख़बर......

सर्वाधिकार सुरक्षित 
                शैल सिंह 
 




ऐ कविता

ना जाने है क्यों सुस्त धार मेरे कलम की जो लहराते उर के समंदर की सरदार थी छटपटाता है अन्तस उमड़ते कितने भाव  उदास मन को है कविता आज तेरी तलाश...